शहडोल के विचारपुर गांव के 5 खिलाड़ी जर्मनी में फुटबॉल की ट्रेनिंग लेंगे। इनमें 3 लड़के और 2 लड़कियां शामिल हैं।
मध्य प्रदेश के ‘मिनी ब्राजील’ कहे जाने वाले विचारपुर गांव के 5 खिलाड़ी जर्मनी में फुटबॉल की ट्रेनिंग लेंगे। 2 अक्टूबर को ये सभी भोपाल से दिल्ली के लिए रवाना होंगे और वहां से जर्मनी जाएंगे। इनके साथ महिला कोच भी रहेंगी। जो खिलाड़ी सिलेक्ट हुए हैं, उनमें
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दरअसल, शहडोल जिले के आदिवासी बाहुल्य गांव विचारपुर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिनी ब्राजील नाम दिया है। करीब 800 की आबादी वाले इस गांव में 60 नेशनल फुटबॉल प्लेयर्स हैं। पीएम मोदी ने सबसे पहले रेडियो प्रोग्राम मन की बात में विचारपुर का जिक्र किया था। उसके बाद अमेरिकी पॉडकास्ट होस्ट लेक्स फ्रीडमैन से बातचीत के दौरान भी यहां के खिलाड़ियों के बारे में बताया।
पीएम के बार-बार विचारपुर का जिक्र करने के बाद जर्मनी के फुटबॉल कोच डायटमार बेयर्सडॉर्फर ने यहां के 5 बच्चों को प्रशिक्षण देने की इच्छा जताई थी। खिलाड़ियों के सिलेक्ट होने के बाद भास्कर की टीम विचारपुर गांव पहुंची और इन बच्चों के संघर्ष के बारे में जाना। इनके माता-पिता से भी बात की। पढ़िए रिपोर्ट…


ग्राम पंचायत के ग्राउंड पर प्रैक्टिस करते हैं विचारपुर गांव में न तो फुटबॉल का कोई स्टेडियम है, न ही कोई फुटबॉल सिखाने वाली एकेडमी। यहां के बच्चे गांव के बुजुर्गों को देखकर ही फुटबॉल खेलना सीखे हैं। सीनियर कोच अनिल सिंह रेलवे में नौकरी करते हैं।
वे कहते हैं कि जब भी समय मिलता है, बच्चों को फ्री ट्रेनिंग देने आता हूं। इसी तरह इस गांव से निकले 10-12 कोच हैं, जो यहां बच्चों को ट्रेनिंग देने आते हैं। मैंने खुद भी पंचायत के इस ग्राउंड में प्रैक्टिस की है। मेरा 3 साल का बेटा भी यहीं खेलता है। वो चौथी पीढ़ी का खिलाड़ी है।
अनिल सिंह बताते हैं कि गांव के मुरलीधर कुण्डे और उनके भाई सुरेश कुण्डे ने 80 के दशक में फुटबॉल खेलना शुरू किया था।

विचारपुर गांव के खिलाड़ी ग्राम पंचायत के ग्राउंड पर प्रैक्टिस करते हैं।
23 साल पहले नेशनल गेम्स में खेलना शुरू किया अनिल सिंह ने कहा- उस समय इस ग्राउंड में शाम के 6 बजे के बाद कोई आना पसंद नहीं करता था। ये शराबियों का अड्डा हुआ करता था। गांव तक पहुंचने के लिए सड़कें-लाइट कुछ नहीं था। कुण्डे भाइयों ने युवाओं को फुटबॉल से जोड़ा। सुरेश कुण्डे से लेकर हमारी पीढ़ी तक के खिलाड़ी स्टेट और नेशनल गेम्स के बारे में नहीं जानते थे। हम लोग स्थानीय स्तर पर टूर्नामेंट आयोजित करते थे।
एक बार विचारपुर की टीम का मैच दूसरी तहसील में हुआ। वहां के पीटी टीचर रईस अहमद ने देखा कि टीम में सीनियर खिलाड़ियों के साथ छोटे बच्चे भी खेल रहे हैं। उन्होंने बच्चों पर ध्यान दिया। उन्हें ट्रेनिंग दी। इसके बाद उन्होंने बच्चों को स्कूलों से जोड़कर स्टेट और नेशनल गेम्स खिलाए। हमारे गांव के खिलाड़ियों ने पहली बार साल 2002 में पहला नेशनल गेम खेला था। आज हालात ये हैं कि बच्चों के अंदर फुटबॉल को लेकर जुनून है।

अब सिलसिलेवार जानिए, जर्मनी में सिलेक्ट हुए खिलाड़ियों के बारे में…

मां बोली- खुश हैं कि बेटा विदेश जाएगा वीरेंद्र का घर विचारपुर के खेल मैदान से करीब 300 मीटर दूर जंगल में है। भास्कर की टीम जब यहां पहुंची तो वीरेंद्र घर पर नहीं था। मां सुनीता बाई ने कहा- गांव के लड़के फुटबॉल खेलते थे, तो मेरा बेटा भी उनके साथ जाकर खेलने लगा। हम भी उसे भेज देते थे। उसे कभी खेलने से रोका नहीं। हमारे पास इस कच्चे मकान के अलावा कुछ नहीं है। मैं और उसके पिता मजदूरी करते हैं, लेकिन उसे जूते वगैरह की कमी नहीं होने दी।
सुनीता से कहा कि उनका बेटा जर्मनी जा रहा है, तो बोलीं- हम शहडोल के आगे नहीं गए। खुश हैं कि बेटा विदेश जाएगा। पिता विजय बैगा ने कहा- बेटा 3-4 बार बाहर खेलने गया है। सब कहते हैं कि वह बहुत अच्छा खेलता है।

वीरेंद्र बोला- नई तकनीक सीखकर लौटूंगा भास्कर से बातचीत में वीरेंद्र ने कहा- मैं बचपन से ही फुटबॉल खेल रहा हूं। जब 11 साल का था, तब से रेगुलर फुटबॉल खेलना शुरू किया। एक लोकल और एक ओपन नेशनल टूर्नामेंट खेल चुका हूं। मेरे पास पहले जूते नहीं थे, तो बिना जूतों के ही खेलता था। दो साल पहले 2023 में मुझे किट मिली है। अब फुटबॉल शू हैं।
हमारे विचारपुर का ग्राउंड वैसा नहीं, जैसा होना चाहिए। अब जर्मनी जाने का मौका मिल रहा है तो वहां से फुटबॉल की नई तकनीक सीखकर आऊंगा।

प्रीतम के चाचा उठाते हैं सारा खर्च 11 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रहा प्रीतम एक नेशनल और स्टेट मैच खेल चुका है। प्रीतम के पिता विजय कुमार का 6 साल पहले देहांत हो गया था। उसकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर फुटबॉल खेलने तक के खर्च चाचा कलेंद्र कुमार उठाते हैं। कलेंद्र कुमार रेलवे के ग्रुप डी के कर्मचारी हैं।
कलेंद्र बताते हैं कि प्रीतम की मां बिहार में रहती है। वह बीच-बीच में प्रीतम को देखने, उससे मिलने आ जाती हैं। सरकारी नौकरी है इसलिए प्रीतम के पालन पोषण में दिक्कतें नहीं हैं।
प्रीतम ने कहा कि जर्मनी जाना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। इससे मेरा मनोबल बढ़ेगा। मैं फुटबॉल में जो भी कुछ कर पा रहा हूं, वो चाचा की बदौलत ही है। चाचा मुझे पूरा सपोर्ट करते हैं।

नानी के घर आया तो लगा फुटबॉल का चस्का विचारपुर मनीष का ननिहाल है। वह शहडोल में रहता है। पिता बुद्धसेन घसिया गुजरात में मजदूर हैं। मनीष ने बताया- मैं 6 साल से फुटबॉल प्रैक्टिस कर रहा हूं। जब नानी के घर विचारपुर आता था तो सभी को फुटबॉल खेलते देखता था। मेरी रुचि भी बढ़ती गई। मेरी मौसी लक्ष्मी ने बहुत सपोर्ट किया, जो कोच भी हैं। उन्हीं की बदौलत एक स्टेट और नेशनल भी खेल चुका हूं।
पिता बुद्धसेन कहते हैं कि मनीष को कभी खेलकूद के लिए मना नहीं किया। हर माता-पिता की इच्छा होती है कि जो वह कर नहीं सके, वो बच्चे करें। फुटबॉल खेलने में जितना खर्च आता है, उसे पूरा करने की कोशिश करता हूं।

रोजाना 100 किमी अप-डाउन करती है सुहानी जर्मनी जाने वालों में सुहानी का भी सिलेक्शन हुआ है। सुहानी का फुटबॉल के प्रति जुनून ऐसा है कि वह रोजाना 100 किमी अप डाउन करती है। दरअसल, पिता राजेश कोल के निधन के बाद मां सुहानी और उसके भाई को लेकर 50 किमी दूर अनूपपुर शिफ्ट हो गई। वह यहां थोक में कपड़े खरीदकर उनका फुटकर व्यवसाय करती है।
सुहानी की मां ने बताया- उसके पिता की इच्छा थी कि बेटी आगे बढ़े। वह उसे खूब पढ़ाना-लिखाना चाहते थे। सुहानी हर दिन सुबह 6 बजे घर से निकलती है। शहडोल में स्कूल पूरा करने के बाद शाम 4 बजे फुटबॉल प्रैक्टिस कर शाम को वापस घर लौटती है।

जब हार मिली, तब जागी दिलचस्पी सुहानी कहती है कि पहले मेरी फुटबॉल में कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन स्कूल के कोच ने मुझे प्रेरित किया। कुछ दिन की प्रैक्टिस के बाद मुझे लगा कि कुछ अच्छा नहीं होगा। इसके बाद स्कूल की तरफ से मुझे विचारपुर भेजा गया। यहां रईस खान सर की कोचिंग के बाद मेरा इंटरेस्ट बढ़ गया।
हमारा मैच हॉस्टल वाली लड़कियों के साथ हुआ और हमारी टीम हार गई। वहीं से मुझे लगा कि हम लोग अच्छा खेलेंगे तो जीत भी सकते हैं। इसके बाद मैंने प्रैक्टिस शुरू कर दी।

कुण्डे परिवार की चौथी पीढ़ी जाएगी जर्मनी सानिया के परदादा सुरेश कुण्डे ने विचारपुर में फुटबॉल की शुरुआत की थी। सानिया के पिता उमेश कहते हैं- दादा के बाद पिताजी और उनके भाई भी फुटबॉल खेलने लगे। मुझे याद है कि जब मैं छोटा था, तब पिताजी और बाकी खिलाड़ी कभी खेत में तो कभी किसी खाली मैदान में प्रैक्टिस करते थे। किसी खेत में जुताई हो जाती तो फिर दूसरे खेत में फुटबॉल खेलने लगते।
पीढ़ी दर पीढ़ी घर में फुटबॉल का क्रेज बढ़ता गया। हम लोग तो बेरोजगारी के चलते इस खेल में आगे नहीं बढ़ पाए लेकिन ये सपना अपने बच्चों को दे दिया। बेटी के जर्मनी जाने की खबर सुनकर मन में एक सुकून आया है कि जो हम हासिल नहीं कर पाए, वो हमारे बच्चों को हासिल हो रहा है। मैं डीजे साउंड का काम करके बच्चों को पाल-पोस रहा हूं। उन्हें खेल में आगे बढ़ा रहा हूं।

सानिया बोली- बहन से मिली प्रेरणा सानिया अपनी फुटबॉल जर्नी के बारे में बताती है- पिछले 6 साल से प्रैक्टिस कर रही हूं। जब मैं छोटी थी, तब घर के पीछे एक ग्राउंड पर कुछ भैया लोग फुटबॉल खेलते थे। मैं भी उन्हीं के साथ खेलने लगी। वो मुझे छोटा समझकर भगा देते थे, लेकिन मैं उसके बाद भी हार नहीं मानती थी। कुछ सालों बाद भैया लोगों की शादी हो गई और उन्होंने खेलना बंद कर दिया।
मैं प्रैक्टिस के लिए विचारपुर के ग्राउंड जाने लगी। शुरू में चाचा ने मुझे चमड़े के जूते लाकर दिए। मैंने उसी से प्रैक्टिस शुरू की। अभी 2 साल पहले किट मिल गई है। हमारे यहां ग्राउंड की हालत बहुत खराब है। वहां रेत है, गोबर पड़ा रहता है लेकिन हम फिर भी खेलते हैं। अभी भी विचारपुर में ऐसे बच्चे हैं, जो खाली पैर फुटबॉल खेलने को मजबूर हैं।

कोच ने पढ़ाई के साथ प्रैक्टिस की पांच बच्चों के साथ जर्मनी जाने वाली महिला कोच लक्ष्मी साहिस ने 7 नेशनल गेम्स खेले हैं। लक्ष्मी कहती हैं- मैं बड़ा सोचती थी, लेकिन इतना बड़ा कभी नहीं सोचा था कि जर्मनी जाने का मौका मिलेगा। मैं अभी एक्साइटेड हूं। मेरे यहां के बच्चे कुछ नया सीखेंगे। मैं भी सीखूंगी। मैं गांव के पुराने खिलाड़ियों के संघर्ष को नमन करना चाहूंगी। उनकी तपस्या से ही ये सब हो पा रहा है।
अभी मैं मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग की तरफ से बच्चों को फुटबॉल की ट्रेनिंग देती हूं। मैं अब तक 9 नेशनल खेल चुकी हूं। मैंने बचपन से फुटबॉल खेलना शुरू कर दिया था। मुझसे पहले यहां 2 सीनियर गर्ल्स रजनी सिंह और सुजाता कुण्डे खेलती थीं। उन्हें देखकर मैं इस खेल के प्रति और ज्यादा आकर्षित हुई और इसी को करियर बनाया।
लड़की होने के चलते काफी संघर्ष करना पड़ा। घर का काम, पढ़ाई करने के बाद प्रैक्टिस करती थी। मैं सामान्य परिवार से हूं तो खेलने के लिए जूते भी नहीं होते थे।

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