ब्राह्मण, वैद्य, ज्योतिषि, वैज्ञानिक… सिर्फ एक संस्कृति तक सीमित नहीं है रामायण के ‘महान’ खलनायक रावण की कहानी – ravana life character role in cultures ramleela ravana dahan ntcpvp

ब्राह्मण, वैद्य, ज्योतिषि, वैज्ञानिक… सिर्फ एक संस्कृति तक सीमित नहीं है रामायण के ‘महान’ खलनायक रावण की कहानी – ravana life character role in cultures ramleela ravana dahan ntcpvp


श्रीराम शर संधान किए खड़े हैं. कान तक कमान को ताने हुए हैं. बस एक तीर निकलेगा और बुराई का अंत तय… रामकथाओं, रामलीला और श्रीराम की प्रसंगों की यही नियति यही परिणति तय रही है. सामने खड़ा है, दशानन रावण, उसका पुतला सबसे ऊंचा बनाया गया है. वह एक हाथ में तलवार थामे है और दूसरे में ढाल. हर साल की तरह इस बार भी रावण का दहन हो जाएगा, लेकिन रावण की कहानी इतनी भर नहीं है. 

महान वंश में हुआ रावण का जन्म
महान ऋषि विश्रवा का पुत्र, पुलस्त्य ऋषि का पोता और पीढ़ियों की सीढ़ीयों पर आगे तक चढ़ कर देखें तो रावण ब्रह्मदेव के कुल में जन्म लेने वाला कुलीन ब्राह्मण ही था. इसलिए ब्राह्मणत्व के संस्कार उसमें जन्म से थे. किशोर अवस्था तक आते-आते वह प्रतिभावान साधक हो चुका था, उसमें तपस्या का भी भाव था, हो सकता है कि करुणा भी रही हो क्योंकि जैन परंपरा रावण में भी अपना ईष्ट देखती है. 

लेकिन जैसे पूर्णिमा का चंद्र भी थोड़ा कलंकित सा दिखता है, ठीक वैसे ही माता कैकसी के कारण अनायास ही मिले राक्षसी प्रभाव का असर रावण में भी था. पुराण कथाओं में दर्ज है कि असुर और रक्ष संस्कृति के पोषक सुमाली ने अपनी बहन कैकसी को समझा-बुझाकर ब्रह्म कुल के महर्षि विश्रवा के पास भेजा और छल से दोनों का विवाह करा दिया. जब ऋषि विश्श्रवा संन्ध्या वंदन कर रहे थे दानव राज सुमाली की पुत्री ने इसी समय उनसे विवाह का प्रस्ताव रख दिया. वचनबद्ध ऋषि को विवाह करना पड़ा, लेकिन सारा सच जानकर मन ही मन वह खिन्न हो गए.

रावण में बचपन से क्यों आया ईर्ष्या का भाव?
यही ऋषि की यही खिन्नता रावण के रूप में जन्मी थी. माता-पिता का व्यवहार संतान के जन्म पर असर डालता ही है, इसलिए रावण के भीतर असंतोष, क्रोध, बैर, खिन्न और ईर्ष्या ये पांच भाव जन्म से ही थे. उधर कैकसी भी ऋषि की पहली पत्नी के पुत्र कुबेर से ईर्ष्या रखती थी. कुबेर की तपनिष्ठा से प्रसन्न होकर महादेव ने उसे यक्षों का अधिपति बना दिया था और देवताओं के कोष का रक्षक घोषित किया. कुबेर को लंका मिली और भारद्वाज ऋषि का बनाया पुष्पक विमान भी. 

Ravan dahan

जन्म के प्रभाव ही बालक को राम भी बना सकते हैं और रावण भी
कहते हैं कि रावण ने जब जन्म लिया तो उसने रूदन के बजाय अट्टहास किया. अशुभकाल का संयोग इतना प्रभावी हुआ कि इस अट्टहास को सुनकर ऐसा लगा कि दिशाएं रो पड़ेंगी. कैकसी और सुमाली प्रसन्न हुए और नाम रखा रावण, यानी जो सबको रुला दे. रावण का जन्म यह सीख देता है कि संतान के जन्म के समय परिवार का वातावरण सकारात्मक, आनंद से भरा और दुख-शोक से दूर रखना चाहिए. संतान को जन्म देना जिम्मेदारी भरा कर्तव्य है. इसलिए गर्भ काल में परिवार का वातावरण अच्छा रखना चाहिए.  

सुमाली जो कि कई वर्षों से रावण को ही रक्ष संस्कृति के उद्धार की आशा मान बैठा था वह रावण को उकसाने की कोशिश करता और धीरे-धीरे देवताओं के प्रति उसमें जहर भरता जाता और फिर धीरे-धीरे रावण एक ब्राह्मण के बजाय एक योद्धा में बदलता चला गया. उसने अपने बाहुबल के आधार पर कई राज्यों को जीता और महाबली कहलाने लगा. अपने उपन्यास ‘वयम् रक्षाम:’ में आचार्य चतुरसेन रावण के इस पहलू का सुंदर जिक्र करते हैं. 

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सीता हरण के दौरान जटायु वध करता रावण, राजा रवि वर्मा की पेंटिंग

धीरे-धीरे प्रबल होते अहंकार और अधिक शक्तियां पाने के लिए रावण ने अपने दोनों भाइयों के साथ ब्रह्मदेव की तपस्या की. कई कल्पों तक ब्रह्म देव प्रसन्न नहीं हुए तो रावण ने अपना शीष काट दिया, लेकिन मृत्यु काल न होने के कारण शीष पुनः जु़ड़ गया, ऐसा रावण ने 10 बार किया तो ब्रह्मदेव को आना पड़ा और वरदान भी देना पड़ा कि सुर, नाग, किन्नर, यक्ष, गंधर्व आदि कोई उसे जीत न सके. अभिमान में रावण मनुष्य नहीं बोला. कहा- मनुष्यों को तो मैं वानरों की तरह मुट्ठी से मसल दूंगा. ब्रह्मा ने तथास्तु कह दिया.

रावण ने खुद अपने दस सिर काटने का जिक्र रामचरित मानस में लंकाकांड में किया है. जब अंगद रावण को चुनौती देते हैं तब रावण कहता है कि, ‘रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यंत हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया. स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं.’

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस.
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥

ब्रह्माजी से वरदान मिलने के बाद रावण ने कुबेर से लंका और पुष्पक छीन लिया. फिर देवलोक पर चढ़ाई की. ग्रहों को बंदी बना लिया. यमराज को पाश में बांध लिया और मृत्यु को सिंहासन के नीचे चौकी बनाकर रख लिया. इसी गुमान में एक दिन वह कैलाश की ओर बढ़ रहा था. जब नंदी ने उसका रास्ता रोका तो रावण ने बंदरमुख वाले कहकर अपमान कर दिया. तब नंदी ने रावण को श्राप दिया कि जिस अभिमान में तूने आज मुझे बंदर कहा है, तेरे अंत इन्हीं वानरों के सहयोग से होगा. 

जब रावण को नंदी से मिला श्राप
नंदी की बात अनसुनी कर रावण कैलास की ओर बढ़ा और महादेव समेत ही उसे उठाने लगा. तब शिवजी ने अंगूठे से बल लगाकर उसे दबा दिया, इससे कैलास के भार में रावण के हाथ दब गए. तब उसने इसी घायल अवस्था में शिवतांडव स्त्रोत की रचना की. संस्कृत में लिखी यह शिव स्तुति आज भी प्रसिद्ध है. प्रसन्न हुए महादेव ने रावण को चंद्रहास खड्ग दे दिया. इस खड्ग ने रावण को अजेय बना दिया.  

तपस्विनी वेदवती ने भी दिया था श्राप
रावण के श्राप की कई कथाए हैं. पुराणों में जिक्र आता है कि चंद्रहास खड्ग लेकर रावण एक वन से गुजर रहा था, जहां वेदवती नामकी एक तपस्विनी तप कर रही थी. रावण उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया. उसने वेदवती को विवाह का प्रस्ताव दिया और मना करने पर उनके बाल पकड़कर खींचे. इससे खिन्न वेदवती ने रावण को श्राप दिया कि मैं ही अगले जन्म में तेरी मृत्यु का कारण बनूंगी. ऐसा कहकर वेदवती ने खुद को अग्निकुंड में भस्म कर लिया. 

इसी तरह का श्राप रावण को नलकुबेर की ब्याहता रंभा अप्सरा ने भी दिया था. रावण रंभा का श्वसुर (ससुर) लगता था, लेकिन फिर भी उसने रंभा का शील भंग करने की कोशिश की. तब नलकुबेर ने रावण को श्राप दिया कि अगर उसने किसी स्त्री की इच्छा विरुद्ध उसे छूने की भी कोशिश की तो उसके सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे. 

इन सबके बावजूद रावण परमज्ञानी और महाप्रतापी ब्राह्मण भी था.

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केरल के शास्त्रीय नृत्य कथकली में रावण के किरदार में तैयार कलाकार

जब रावण ने दिया श्रीराम को विजयश्री का आशीर्वाद
एक कथा कही जाती है कि जब राम वानरों की सेना लेकर समुद्र तट पर पहुंचे, तब उन्होंने विजय यज्ञ किया. पूर्णाहुति के लिए देवताओं के गुरु बृहस्पति को बुलावा भेजा गया, लेकिन वह आ न सके. सोच-विचार के बीच उपाय हुआ कि लंकापति रावण को ही बुलाया जाए क्योंकि वह ब्राह्मण भी हैं और ब्रह्मकुल के भी.

रावण यज्ञ पूर्ण करने लिए आया साथ ही देवी सीता को भी लेकर पहुंचा, क्योंकि बिना अर्धांगिनी के यज्ञ का फल नहीं मिलता. रावण ने यज्ञ पूर्ण करके राम को विजय का आशीर्वाद भी दिया. मंत्रियों ने रावण से इसका कारण पूछा तब रावण ने कहा- महापंडित रावण ने यह आशीर्वाद दिया है, राजा रावण ने नहीं. 

रावण का जीवन महज युद्ध-अनाचार, अभिमान तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह शोध, विज्ञान, साहित्य, पांडित्य, ज्योतिष और दर्शन जैसे विषयों में भी रुचि लेता था. उसने कई तंत्र ग्रंथों की रचना की. मान्यता है कि लाल किताब (ज्योतिष का प्राचीन ग्रंथ) भी रावण संहिता का अंश है.  रावण ने यह विद्या भगवान सूर्य से सीखी थी. इसके अलावा रावण ने ही अंक प्रकाश, इंद्रजाल, कुमारतंत्र, प्राकृत कामधेनु, प्राकृत लंकेश्वर, ऋग्वेद भाष्य, रावणीयम, नाड़ी परीक्षा आदि पुस्तकों की रचना की थी. जन्म कुण्डली, हस्त रेखा तथा सामुद्रिक शास्त्र का मिश्रण ही लाल किताब है. 

रावण ने असंगठित राक्षस समाज को एकत्रित कर उनके कल्याण के लिए कई कार्य किए. रावण ने सुंबा और बाली द्वीप को जीतकर अपने शासन का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलय द्वीप, वराह द्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप, यव द्वीप और आंध्रालय पर विजय प्राप्त की थी. इसके बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया. आज के युग के अनुसार रावण का राज्य विस्तार इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत के कुछ राज्य और संपूर्ण श्रीलंका में था. 

वैज्ञानिक, ज्योतिष भी था रावण
रावण अपने युग का प्रकांड पंडित ही नहीं, वैज्ञानिक भी था. आयुर्वेद, तंत्र और ज्योतिष के क्षेत्र में उसका योगदान महत्वपूर्ण है. इंद्रजाल जैसी अथर्ववेदमूलक विद्या का रावण ने ही अनुसंधान किया. उसके पास सुषेण जैसे वैद्य थे, जो देश-विदेश में पाई जाने वाली जीवनरक्षक औषधियों की जानकारी स्थान, गुण-धर्म आदि के अनुसार जानते थे. चिकित्सा और तंत्र के क्षेत्र में रावण ने दस शतकात्मक अर्कप्रकाश,  दस पटलात्मक उड्डीशतंत्र, कुमारतंत्र और नाड़ी परीक्षा जैसे ज्ञानग्रंथ भी रचे थे. 

संगीत के क्षेत्र में भी रावण की विद्वता अपने समय में अद्वितीय मानी जाती है. वीणा बजाने में रावण सिद्धहस्त था. उसने एक वाद्य बनाया भी था. आज का रावण हत्था उसी वाद्य का परिष्कृत स्वरूप है. रावण ने कुछ रागों की रचना भी की थी और नृत्य की कई शैलियों का सुधारक भी था. हालांकि समय के साथ उसके अर्जित कई ज्ञान लुप्त हो गए हैं. कहते हैं कि एक बार रावण शिवजी की स्तुति करते हुए वीणा वादन कर रहा था. इसी दौरान भाव में उससे वीणा का तार टूट गया. रावण ने तुरंत अपनी नाड़ी खींचकर उससे यंत्र को बांधा और राग को पूर्ण किया. कहते हैं कि यही वाद्य रावण हत्था कहलाया. 

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18वीं शताब्दी में निर्मित रावण की प्रस्तर प्रतिमा

अलग-अलग संस्कृतियों में रावण
रामायण की कहानी सिर्फ हिंदू धर्म तक सीमित नहीं है. विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में इसका रूप बदल जाता है, और खासकर रावण का चरित्र अलग-अलग तरीके से दिखाया जाता है. तिब्बती रामायण में एक भविष्यवाणी है कि रावण कलियुग में विष्णु का बुद्ध अवतार बनकर लौटेगा. यह विचार रामायण को बौद्ध दर्शन से जोड़ता है, जहां रावण का चरित्र गहरा और रहस्यमय लगता है.

वहीं अरुणाचल प्रदेश की ताई खाम्ती रामायण (प्रा चाउ लमांग) राम को एक बोधिसत्व (बौद्ध संत) के रूप में दिखाया गया है, जो रावण के यातनाओं को सहने के लिए जन्म लेते हैं. राम की पीड़ा को बौद्ध करुणा की मिसाल माना जाता है, जो दुखों से मुक्ति का संदेश देती है. वहीं, लाओस के बौद्ध ग्रंथ ‘फ्रा लाक फ्रा लाम’ में राम को बोधिसत्व बताया गया है, जो सद्गुणों का प्रतीक हैं. वहीं, रावण एक ब्राह्मण (महाब्रह्मा) है, जो विरुलाहा का पुत्र है और बहुत भौतिकवादी स्वभाव का है. रावण की महत्वाकांक्षा को नैतिक पाठ के रूप में देखा जाता है.
कंबोडिया की बौद्ध ग्रंथ प्रेयाह रीयम में बुद्ध को राम का अवतार माना गया है, जबकि रावण एक राक्षस ही रहता है. यह रामायण को बौद्ध विश्वासों से जोड़ते हुए, राम की विजय को आध्यात्मिक जय के रूप में प्रस्तुत करता है, थाई बौद्ध ग्रंथ रामकीन व थाई रामायण में रावण को राक्षस ही कहा गया है, जिसका नाम “थोत्साकन” है (संस्कृत से दशकंठ, अर्थात् दस गलें). उसे हरी त्वचा वाला चित्रित किया जाता है. यह संस्करण थाई संस्कृति की कला और नाटकों में लोकप्रिय है.

जैन रामायण में रावण
उधर, जैन रामायण जो हिंदू संस्करण से अलग है और ये घटनाएं 20वें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समय की बताई जाती हैं. जैनों के अनुसार, राम और रावण दोनों ही भक्त जैन थे. रावण एक विद्या धारक राजा था, जिसके पास जादुई शक्तियां थीं. अंत में, लक्ष्मण ने ही रावण को मारा, न कि राम ने. जैन संग्रहालय में रावण का एक सुंदर दीोरामा भी है, जो उसके जैन पक्ष को दिखाता है.

ये विभिन्न परंपराएं दिखाती हैं कि रामायण कितनी लचीली और बहुआयामी कहानी है. रावण कभी खलनायक, कभी विद्वान, कभी बौद्ध प्रतीक सब कुछ बन जाता है. इसलिए रावण को सिर्फ एक विलेन के तौर पर ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि उसे तमाम संस्कृतियों का एक वाहक भी समझना चाहिए. रावण के इतने विशाल पक्ष को देखते हुए ही रचनाकारों ने उसे राम के विरुद्ध खड़ा किया है, क्योंकि खलनायक ही नायक की अमरता का सिद्धांत है.

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