मुंबई32 मिनट पहलेलेखक: ईफत कुरैशी
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सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का आज 83वां जन्मदिन है। पूरी दुनिया उन्हें महानायक कहती है, लेकिन अमिताभ बच्चन की मानें तो असली महानायक वो नहीं, उनके पिता हरिवंशराय बच्चन हैं। उनकी जिंदगी संवारने में पिता और उनकी सीख का बड़ा महत्व रहा। आज बर्थडे के खास उपलक्ष्य में जानिए, अमिताभ बच्चन की पिता की सीख से बनी जिंदगी की अनसुनी कहानी-
10 अक्टूबर 1941, अमिताभ बच्चन के जन्म से ठीक एक साल एक दिन पहले की तारीख थी।
हरिवंशराय बच्चन की जिंदगी में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। लंबी बीमारी से पिता प्रताप नारायण श्रीवास्तव चल बसे। मां ने उसी दिन जीने की इच्छा खत्म कर दी।
हरिवंशराय बच्चन, पहली पत्नी श्यामा को भी टीबी से खो चुके थे। जीते जी पिता लगातार उन्हें दूसरी शादी के लिए मनाते रहे, लेकिन वो दोबारा घर न बसाने की जिद पर अड़े रहे। यही वजह रही कि उनकी पिता से ज्यादा बनती न थी, लेकिन पिता के गुजर जाने के बाद उन्हें उनकी कही आखिरी बात याद रही कि ‘बेटा मैं मरने से पहले तुम्हें सुखी देखना चाहता हूं।’ यहां सुखी देखने का अर्थ उनकी शादी से था। पिता के गुजर जाने के बाद घर में अजीब सन्नाटा पसर गया, लेकिन अब भी उनका मन घर बसाने का न था।
लेकिन एक रोज इत्तेफाकन उनकी मिस तेजी सूरी (अमिताभ बच्चन की मां) से मुलाकात हो गई।
तेजी 1941 में लाहौर के फतेहचंद कॉलेज में साइकोलॉजी पढ़ाती थीं। उस समय हरिवंश राय साहब कॉलेज में पढ़ाई के साथ अपनी छपी हुईं मधुशाला जैसी किताबों और लेखन के लिए मशहूर थे। दोनों ही अब तक एक दूसरे के अस्तित्व से अनजान थे।
एक शाम लाहौर में महफिल जमी, जहां कुछ स्टूडेंट्स ने हरिवंशराय बच्चन से कुछ पंक्तियां सुनाने को कहा। उनके दोस्त प्रकाश की पत्नी प्रेमा ने आवाज देकर अपनी सहेली तेजी को भी कविता सुनने बुला लिया। हरिवंश राय ने जैसे ही कविता खत्म की, मिस तेजी सूरी के आंसू बहने लगे। और ये आंसू ही दोनों के ताउम्र रिश्ते के कारण बने। तेजी से चंद बातें करने के बाद हरिवंशराय बच्चन ने कभी शादी न करने का मन एक झटके में बदल लिया। वहीं, तेजी ने अपनी सगाई तोड़कर हरिवंशराय बच्चन से जनवरी 1941 में सिविल मैरिज की। चंद महीनों में तेजी ने खुशखबरी सुना दी कि वो जल्द मां बनने वाली हैं।
10 अक्टूबर 1942 की बात थी, अमिताभ बच्चन के जन्म से ठीक एक दिन पहले।
हरिवंशराय बच्चन के करीबी दोस्त सुमित्रानंदन पंत अल्मोड़ा से काम के सिलसिले में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) आए थे। हरिवंशराय और तेजी बच्चन ने दबाव बनाकर उन्हें अपने ही घर में ठहरा लिया।

बाएं से दाएं- हरिवंशराय बच्चन, सुमित्रानंदन पंत और तेजी बच्चन।
इस दिन हरिवंशराय बच्चन के पिता की पहली बरसी थी। रात को देर तक बात करने के बाद सभी सोने चल दिए। हरिवंशराय गहरी नींद में थे। उन्होंने ख्वाब देखा कि उनके चक वाले पुश्तैनी घर की पूजा की कोठरी में उनके दिवंगत पिताजी चश्मा लगाए रामचरितमानस लिए पढ़ रहे हैं। वो पत्नी तेजी के साथ वहीं पास बैठे सुन रहे हैं। पिता पांचवें विश्राम पाठ में थे, जिसमें मनु और उनकी पत्नी शतरूपा की तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु प्रकट होते हैं। दोनों उनसे वरदान मांगते हैं-

‘चाहउं तुम्हहि समान सुत’ (मैं तुम्हारे समान पुत्र चाहता हूं)।
इतने में तेजी ने उन्हें नींद से जगा दिया। उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी थी। पत्नी दर्द में थी, लेकिन हरिवंशराय बच्चन का सपना इतना साफ था कि वो बिना सुनाए रह न सके। उन्होंने झट से पत्नी से कहा- ‘तेजी तुम्हें लड़का ही होगा, उसके रूप में मेरे पिताजी की आत्मा आ रही है।’
कुछ ही घंटों बाद यानी 11 अक्टूबर 1942 को तेजी बच्चन ने बेटे को जन्म दिया। सुमित्रानंदन पंत जब शाम को घर लौटे तो जच्चा-बच्चा से मिलने के बाद उन्होंने उस बच्चे को अमिताभ नाम दिया।
पुत्र सुख प्राप्त कर हरिवंशराय बच्चन ने कविता लिखी-

फुल्ल कमल, गोद नवल, मोद नवल, गेह में विनोद नवल। बाल नवल, लाल नवल, दीपक में ज्वाल नवल । (खिला हुआ कमल नया है, गोद में बालक नया है, हर्ष नया है, घर में आनंद नया है। बालक नया है, लाल (पुत्र) नया है, जैसे दीपक में नई ज्योति जल उठी हो।)
जिस बच्चे के जन्म से पहले उनके पिता ने भविष्यवाणी की, जिसके जन्म पर पिता ने कविता लिख डाली, वो बच्चा आज सदी का महानायक है। उसने पिता की कविताओं के जरिए अपनी जिंदगी में नाकामी, कामयाबी का सार खोजा और उससे सीख ली।

पिता हरिवंशराय बच्चन और मां तेजी के साथ नन्हे अमिताभ बच्चन।
अमिताभ जब एक साल के हुए तो मां ने अंग्रेजी में एम.ए. में दाखिला ले लिया। चंद महीने बीते ही थे कि बेटे का स्वास्थ गिरने लगा, तो मां ने पढ़ाई छोड़ दी। इसी समय हरिवंशराय बच्चन को यूनिवर्सिटी ऑफिसर्स की एक ट्रेनिंग के सिलसिले में महू जाना पड़ा, तो उनके पीछे तेजी ने अमिताभ को अकेले संभाला। एक रोज हरिवंशराय बच्चन को तेजी का खत मिला, जिसमें उन्होंने कहा कि बेटे अमिताभ को मलेरिया हो गया है। बेटे की फिक्र में वो बस खतों का इंतजार करते रहते। आने वाले खतों में बस यही लिखा होता था कि अमिताभ का स्वास्थ ठीक होने के बजाय दिन–ब–दिन बिगड़ता जा रहा है। हरिवंशराय बच्चन को हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं अगले खत में कोई अनहोनी की खबर न आ जाए।
इसी समय साथियों के दबाव में हरिवंशराय बच्चन ने शराब पीनी शुरू कर दी। एक रोज उन्हें ख्याल आया कि जब बाबर को इस तरह चुनौतियां मिली होंगी तो उसने क्या किया होगा। पानीपत की लड़ाई में जब उसे लगा कि उसे हार मिलने वाली है, तब उसने प्रण किया कि अगर जीत हुई तो कभी शराब नहीं पियूंगा। जीत हुई तो बाबर ने शराब छोड़ दी। कहीं न कहीं हरिवंश जानते थे कि बाबर के जंग जीतने और शराब छोड़ने का कोई भौतिक संबंध न था, लेकिन फिर भी पुत्र की बीमारी से चिंतित होकर उन्होंने एक रोज प्रण कर लिया कि अमित (अमिताभ) अगर स्वस्थ हो जाए तो वो कभी शराब न पिएंगे। तेजी ने जब अगला खत लिखा तो उसमें लिखा कि अमित की तबीयत में सुधार आ रहा है। उन्होंने इसका श्रेय अपने त्याग को दिया और जब अगले खत में उन्हें पता चला कि बेटा स्वस्थ हो गया तो फिर उन्होंने ताउम्र शराब को छुआ तक नहीं।
अमिताभ 4 साल के हुए तो उनका दाखिला स्ट्रेची रोड, इलाहाबाद के बंगले के पास स्थित सेंट मैरीज कॉन्वेंट स्कूल में करवाया गया। हरिवंशराय बच्चन ने खुद सरकारी स्कूल में पढ़ाई की थी, जहां उनकी फीस एक पैसे थी, लेकिन पत्नी तेजी ने कॉन्वेंट से पढ़ाई की तो वो चाहती थीं बेटा भी कॉन्वेंट में पढ़े, चाहे फीस कितनी भी हो। तेजी की जीत हुई और कॉन्वेंट स्कूल में अमिताभ की महीने की फीस 15 रुपए रही। हरिवंशराय बच्चन के लिए फीस ज्यादा थी, लेकिन जिस तरह अमिताभ ने पढ़ाई में और सीखने में रुचि दिखाई, उससे उन्हें कभी महसूस नहीं हुआ कि ये फीस बेकार गई।
स्कूल में बेटे अमिताभ का नाम लिखवाते हुए हरिवंशराय बच्चन ने एक नई उम्मीद पाल ली। वो और तेजी कास्ट सिस्टम के खिलाफ थे। हरिवंशराय का सरनेम वैसे तो श्रीवास्तव था, लेकिन एक बार कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में उन्होंने बच्चन शब्द का प्रयोग किया और फिर उन्होंने अपनी सारी किताबें बच्चन (बच्चों सा) नाम से छापीं। एक समय ऐसा आया, जब लोग उन्हें मिस्टर बच्चन कहने लगे और उनकी पत्नी को मिसेज बच्चन।
हरिवंशराय बच्चन चाहते थे कि उनके परिवार की हर पीढ़ी पुरानी रूढ़ियां तोड़कर आगे बढ़े, अकेलेपन को बल बनाए और किसी भारी-भरकम सरनेम से मिली पहचान में न सिमटे। यही वजह रही कि हरिवंशराय ने बेटे का पूरा नाम स्कूल में अमिताभ बच्चन रख दिया। वो इसे नए परिवार का प्रारंभ कहते हैं।
क्योंकि अमिताभ बच्चन का जन्म महात्मा गांधी द्वारा शुरू की गई अगस्त क्रांति के ठीक तीन महीने बाद हुआ था, तो सुमित्रानंदन पंत उन्हें इंकलाब कहते थे। 1946 में जब अमिताभ के छोटे भाई का जन्म हुआ तो भी पंत जी ने ही उसका नाम अजिताभ रखा। अजिताभ का जन्म आजादी से तीन माह पहले हुआ तो पंत जी उन्हें भी आजाद कहा करते थे, लेकिन आम दिनों में वो अजिताभ का परिचय, अमिताभ का छोटा भाई कहकर करवाते थे।

बाएं से दाएं- तेजी बच्चन, अमिताभ बच्चन (पीछे), अजिताभ बच्चन।
मां और पिता ने अमिताभ को जिंदगी के हर मोड़ पर सीख दी। इनमें से एक थी, अपने दुश्मनों का सामना करना, चाहे वो आपसे ताकतवर क्यों न हों। एक रोज अमिताभ खेलने, घर से निकले और घर के आसपास के बड़े लड़कों से मार खाकर घर लौटे। मां ने देखा, तो वो खूब गुस्सा हुईं, उन लड़कों पर नहीं, अपने बेटे पर। तेजी ने उन्हें चिल्लाते हुए कहा, ‘जाओ और जिसने पीटा, उसे पीटकर आओ।’
छरहरा शरीर लिए मां की बात पर अमिताभ निकल पड़े और इस बार उन लड़कों की पिटाई कर लौटे।
अमिताभ की परवरिश वैसी ही हुई, जैसे हर आम बच्चे की होती है। अच्छा काम करने पर तारीफें भी मिलीं और बदमाशी करने पर मार भी पड़ती थी। बारिश के मौसम में अमिताभ आस-पड़ोस के बच्चों के साथ खूब भीगा करते थे। एक रोज वो ऐसे भीगे कि पूरा कीचड़ साथ में समेट लाए। जैसे ही मां-बाबूजी घर पहुंचे तो जमकर डांट पड़ी, जिसे अमिताभ बच्चन अपनी जिंदगी की सबसे तेज डांट कहते हैं। मां ने गलती पर दुलार नहीं किया और नन्हे हाथों वाले अमिताभ से ही पूरा फर्श साफ करवाया।
ठीक इसी तरह एक रोज अमिताभ बच्चन बदमाशी करते हुए एक दुकान से बिना बताए रबर उठा लाए। दुकानवाला तो समझ न सका, लेकिन घर आकर जब मां ने देखा तो गुस्से में आग बबूला हो गईं। उनके लिए छोटी हो या बड़ी, चोरी तो चोरी थी। उन्होंने बेंत (सहारा लेकर चलने वाली लकड़ी) उठाई और बेटे की तब तक पिटाई की जब तक बेंत टूट न गई। शीला झुनझुनवाला की किताब के अनुसार, इस पिटाई से अमिताभ के शरीर पर सूजन आ गई थी।

स्कूल के दिनों में ली गई मां तेजी बच्चन के साथ अमिताभ बच्चन की तस्वीर।
इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में शुरुआती पढ़ाई के बाद अमिताभ का दाखिला नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में करवाया गया। स्कूल में एनुअल प्ले होता था, जिसमें वो पूरे जोश के साथ भाग लेते थे। अभिनय की कला अमिताभ को मां तेजी बच्चन से मिली थी। वो भी नाटकों में हिस्सा लेती थीं और हिंदी सिनेमा से जुड़ना चाहती थीं, लेकिन पहले पढ़ाई, फिर नौकरी और फिर शादी में व्यस्त होने के चलते उन्हें ये ख्वाहिश अधूरी छोड़नी पड़ी। अमिताभ ने एनुअल प्ले में हिस्सा लिया तो उन्हें पहले ही साल बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। अगले साल जब एनुअल डे हुआ तो अमिताभ ने फिर इसमें हिस्सा लिया, पूरी उम्मीद थी कि इस साल भी वही जीतेंगे, लेकिन परफॉर्मेंस से ठीक एक दिन पहले वो ऐसे बीमार पड़े कि उन्हें अस्पताल पहुंचाना पड़ा। इस समय उन्हें बीमारी से ज्यादा प्रतियोगिता न जीत पाने का अफसोस था। बाबूजी हरिवंशराय बच्चन जब उनसे मिलने पहुंचे तो बेटे का चेहरा देख वो भांप गए।
इस समय अमिताभ को बाबूजी से पहली और जिंदगी की सबसे कीमती सीख मिली। पिताजी ने बड़े प्यार से कहा-

मन का हो तो अच्छा, न हो तो और भी अच्छा।
नन्हे से अमिताभ इस बात को क्या ही समझ पाते। उन्होंने झट से कहा, अगर मन का न हो रहा हो तो अच्छा कैसे हो सकता है। तो पिता ने कहा, ‘नहीं तब वो ईश्वर के मन का होता है। और ईश्वर हमेशा आपका भला ही चाहेंगे।’
साल 1958 की बात है।
अमिताभ 16 बरस के हो चले थे। मां भी नौकरी पर लौट चुकी थीं और लिटरेचर के क्षेत्र में बड़ा मुकाम हासिल कर रही थीं और पिता हरिवंशराय भी बड़े लेखकों में शुमार हो चुके थे। नैनीताल के शेरवुड कॉलेज से स्कूलिंग खत्म कर अमिताभ बच्चन ने दिल्ली के किरोड़ी मल कॉलेज में मां-बाबूजी के कहने पर ग्रेजुएशन में दाखिला ले लिया। इसी समय जब नौकरी की तलाश शुरू की, तो हर तरफ निराशा हाथ आई। एक रोज अमिताभ दिल्ली के कॉफी हाउस में दोस्तों के साथ बैठे थे। लगभग सभी दोस्त नौकरी न मिलने से परेशान हाल थे। इतने में एक दोस्त बोल पड़ा- ‘गलती हमारी नहीं है, गलती हमारे माता-पिता की है। गलती ये है कि उन्होंने हमें पैदा क्यों किया।’
अमिताभ को लगा कि ये दोस्त सही तो कह रहा है। वैसे तो अमिताभ बड़े शांत स्वभाव के थे और बाबूजी के आगे ज्यादा कुछ बोल नहीं पाते थे, लेकिन दोस्त की बात को मन में लिए जब वो अगली छुट्टी पर घर पहुंचे तो उन्होंने जिंदगी में पहली और आखिरी बार हिम्मत कर कह दिया- ‘आज मुझे पता चल गया है कि वजह क्या है। आपने मुझे पैदा क्यों किया था।’ (अमिताभ की आवाज में भारी गुस्सा था)
पिता उनकी ये बात सुनकर दंग रह गए, लेकिन कुछ कहा नहीं।
रोज सुबह 4 बजे सैर पर जाने से पहले हरिवंशराय बेटे को पढ़ाई के लिए उठाते थे, लेकिन उस रोज जब वो निकले तो उन्होंने बेटे को जगाया नहीं, बस हल्के कदमों से उसके कमरे में पहुंचे और सिरहाने एक चिट्ठी छोड़ गए।
अमिताभ ने चिट्ठी खोली तो उसमें बीते दिन हुई बात का जवाब लिखा था, जो ऐसा है-

जिंदगी और जमाने की कशमकश से घबराकर मेरे बेटे मुझसे पूछते हैं कि हमें पैदा क्यों किया था? और मेरे पास इसके सिवाय कोई जवाब नहीं है कि मेरे बाप ने मुझसे बिना पूछे मुझे क्यों पैदा किया था? और मेरे बाप को उनके बाप ने बिना पूछे उन्हें और उनके बाबा को बिना पूछे उनके बाप ने उन्हें क्यों पैदा किया था? जिंदगी और जमाने की कशमकश पहले भी थी, आज भी है शायद ज्यादा, कल भी होगी, शायद और ज्यादा, तुम ही नई लीक रखना, अपने बेटों से पूछकर उन्हें पैदा करना।
पहले अधूरे प्यार की कहानी, जिसने अमिताभ को मुंबई पहुंचाया
पढ़ाई पूरी करने के बाद अमिताभ बच्चन काम की तलाश में कोलकाता पहुंचे, जहां उन्हें शराब कंपनी शॉ वॉलेस शिपिंग फर्म एंड कंपनी में काम क्लर्क की नौकरी की। कुछ समय बाद उन्हें ICI में 1500 रुपए तनख्वाह की अच्छी नौकरी मिल गई। यहीं उनकी मुलाकात चंद्रा नाम की लड़की से हुई, जिनसे उन्हें प्यार हो गया। एक रोज अमिताभ बच्चन ने इजहार-ए-मोहब्बत किया तो लड़की ने इनकार कर दिया। दिल टूटा तो उन्होंने कोलकाता की नौकरी छोड़ दी और मुंबई निकल पड़े।
नाटकों में हिस्सा लेते हुए उन्हें अभिनय में रुचि थी, लेकिन बाबूजी चाहते थे कि वो नौकरी ही करें। एक रोज वो रेडियो स्टेशन पहुंचे। उस दौर की मशहूर आवाज रहे अमीन सयानी ने उनका ऑडिशन लिया और ये कहकर रिजेक्ट कर दिया कि लोग तुम्हारी आवाज सुनकर डर जाएंगे। इसके अलावा भी अमिताभ को हर जगह से निराशा हाथ लगी।
इसी समय के आसपास उनके भाई अजिताभ ने एक रोज मुंबई से दिल्ली जाते हुए ट्रेन में पास बैठे लड़के से सुना कि डायरेक्टर ख्वाजा अब्बास फिल्म के लिए नए चेहरे की तलाश में हैं। उन्होंने झट से भाई अमिताभ की तस्वीर उस लड़के को थमा दी। अगले दिन तस्वीर देखकर ख्वाजा अब्बास ने अमिताभ को मिलने बुलाया।
वो दिल्ली पहुंचें। सफेद चूड़ीदार, सफेद कुर्ते के साथ नेहरू जैकेट पहने अमिताभ जब बातचीत के लिए तैयार हुए तो ख्वाजा अब्बास ने उनका नाम पूछा।
जवाब मिला, ‘अमिताभ।’
ख्वाजा अब्बास ने आगे पूछा, ‘क्या तुमने इससे पहले कभी फिल्मों में काम किया है?’
अमिताभ- ‘जी नहीं, लोगों ने मुझे कभी फिल्मों में लिया ही नहीं।’
ख्वाजा ने वजह पूछी तो जवाब में अमिताभ ने कई बड़ी हस्तियों के नाम लिए।
ख्वाजा ने फिर पूछा- ‘उन्हें आप में क्या दिक्कत नजर आई?’
अमिताभ- ‘उन्हें लगता था कि मैं हीरोइनों के हिसाब से काफी लंबा हूं।’
ख्वाजा- ‘हमारे साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि हमारी फिल्म में हीरोइन नहीं है। होती तब भी तुम्हें ले लेते।’
अमिताभ- ‘आप मुझे फिल्म में ले रहे हैं? क्या वाकई आप मुझे फिल्म में ले रहे हैं? बिना टेस्ट के?’
ख्वाजा- ‘पहले तुम स्टोरी सुन लो फिर रोल और फीस जान लो। अगर तुम तैयार हुए तो कॉन्ट्रैक्ट साइन करेंगे।’
बातचीत में ख्वाजा अब्बास को पता चला कि अमिताभ, मशहूर राइटर हरिवंशराय बच्चन के बेटे हैं। उन्होंने फिर पूछा- ‘क्या घर से भागकर आए हो।’ अमिताभ ने कहा, ‘नहीं।’
अमिताभ बच्चन जैसे ही उनकी ऑफिस से निकले, उन्होंने तुरंत हरिवंशराय बच्चन को खत लिखा कि कहीं उन्हें बेटे के फिल्मों में आने पर कोई आपत्ति तो नहीं।
हरिवंशराय बच्चन वैसे तो चाहते थे कि अमिताभ नौकरी करें, लेकिन इस खत के जवाब में उन्होंने लिख भेजा कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं। इस तरह बात बनी और ख्वाजा अब्बास ने 5 हजार रुपए देकर 15 फरवरी 1969 को अमिताभ को फिल्म सात हिंदुस्तानी में साइन कर लिया। शूटिंग हुई और उनकी पहली फिल्म सात हिंदुस्तानी 7 नवंबर 1969 में रिलीज हुई। आगे वो ‘आनंद’, ‘प्यार की कहानी’ और ‘रेशमा और शेरा’ जैसी फिल्मों में नजर आए। लेकिन कोई भी फिल्म उन्हें सफल बनाने लायक न चली।
उम्र हो चली थी 30 साल और उनकी सिर्फ ‘आनंद’ और ‘बॉम्बे टू गोवा’ फिल्में हिट रहीं और बाकी फ्लॉप। लोगों ने उन्हें फेल्ड यानी नाकाम न्यूकमर कह दिया। इसी समय प्रकाश मेहरा ने फिल्म जंजीर शुरू की। देव आनंद, राजकुमार जैसे कई एक्टर्स ने फिल्म करने से इनकार कर दिया।
एक रोज प्राण की मुलाकात प्रकाश मेहरा से हुई। उन्होंने अमिताभ की कुछ फिल्में देख रखी थीं, तो प्रकाश मेहरा को हीरो के लिए परेशान होते देख उन्होंने अमिताभ का नाम सुझाते हुए कहा, ये लड़का आगे जाकर स्टार बनेगा। साथ ही कहा कि अगर उसकी एक्टिंग देखनी है तो बॉम्बे टू गोवा फिल्म देखें। प्रकाश मेहरा ने फिल्म देखी और देखते ही चिल्लाए- ‘जंजीर का हीरो मिल गया…।’
फिल्म की शूटिंग शुरू हुई और खबरें आने लगीं कि प्रकाश मेहरा फ्लॉप हीरो के साथ फिल्म बना रहे हैं। अमिताभ भी इससे निराश थे तो उन्होंने प्रकाश मेहरा से कहा कि अगर फिल्म न चली तो वो बोरिया-बिस्तर उठाकर इलाहाबाद निकल जाएंगे। फिल्म की हीरोइन मुमताज थीं, लेकिन इसी समय शादी कर उन्होंने फिल्म छोड़ दी। हीरोइन की भी तलाश में मुश्किल होने लगी। कोई एक्ट्रेस अमिताभ के साथ काम करने को राजी न हुई। एक दिन अमिताभ ने गुड्डी में साथ काम कर चुकीं जया को बताया कि उनके साथ कोई हीरोइन काम करने के लिए तैयार नहीं है। जया ने कहा कि अगर प्रकाश मेहरा उन्हें कहें तो वो जंजीर फिल्म कर लेंगी। प्रकाश ने पूछा तो जया झट से राजी हो गईं। डिस्ट्रीब्यूटर ये कहकर अमिताभ का मजाक उड़ाते कि ये लंबा बेवकूफ हीरो कौन है? ये सुनकर वो खूब रोते थे।
आखिरकार 11 मई 1973 को जंजीर फिल्म रिलीज हुई। कोलकाता में फिल्म ने अच्छी कमाई की, लेकिन मुंबई में इसके शुरुआती दिन बुरे रहे। अमिताभ ऐसे टूटे कि उन्हें बुखार आ गया। चार दिन बाद प्रकाश मेहरा ने मुंबई की गैएटी गैलेक्सी सिनेमा के बाहर से गुजरते हुए देखा कि थिएटर की खिड़की पर भीड़ लगी है। लोग 5 रुपए की टिकट 100 रुपए में खरीदने के लिए भगदड़ में फंसे हैं। उन्होंने कभी गैएटी गैलेक्सी में ऐसी भीड़ नहीं देखी थी। जैसे ही ये खबर अमिताभ की दी तो उन्हें 104 बुखार हो गया। उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। ठीक एक हफ्ते बाद अमिताभ बच्चन एक स्टार बन चुके थे और तभी उन्हें नाम मिला… एंग्री यंग मैन। फिर अमिताभ को ऐसी कामयाबी मिली, जिसकी गवाही हिंदी सिनेमा देता है।

ये फोटो फिल्म दीवार की है। इसमें अमिताभ पहले डॉक पर कुली का काम करते थे। बाद में वे एक गैंग के लीडर बन जाते हैं।
इस मुश्किल सफर से निकलते पर अमिताभ बच्चन को पिता की लिखी कविता जरूर याद आई होगी-

जो बीत गई सो बात गई, जीवन में एक सितारा था, माना वो बेहद प्यारा था, जो डूब गया सो डूब गया, अंबर के आनंद को देखो, कितने इसके तारे टूटे, कितने इसके प्यार छूटे, पूछो कब टूटे तारों का अंबर शोक मनाता है। जो बीत गई सो बात गई।
(नोट- ये कहानी हरिवंशराय बच्चन की ऑटोबायोग्राफी ‘नीड़ का निर्माण फिर से’ और अमिताभ बच्चन के साक्षात्कारों के आधार पर लिखी गई है। )