बिहार चुनाव में कोई सीएम का चेहरा हो या न हो, लड़ाई तो लालू बनाम नीतीश ही है – bihar elections chief minister face strategy or compulsion opnm1

बिहार चुनाव में कोई सीएम का चेहरा हो या न हो, लड़ाई तो लालू बनाम नीतीश ही है – bihar elections chief minister face strategy or compulsion opnm1


बिहार चुनाव के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कौन बैठेगा, ये किसी को भी नहीं मालूम. लेकिन, ये जरूर मालूम है कि किस गठबंधन के जीतने पर कौन मुख्यमंत्री बनेगा? और, ये तब भी है जब मुकाबले में आमने सामने दोनों में से किसी भी गठबंधन ने अपनी तरफ से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया है?

जैसे तेजस्वी यादव के नाम पर राहुल गांधी पेच फंसाए हुए हैं, अमित शाह ने भी नीतीश कुमार के नाम पर हामी नहीं भरी है. करीब करीब वैसे ही जैसे महाराष्ट्र में चुनाव के दौरान एकनाथ शिंदे को तात्कालिक मुख्यमंत्री बताया था – लेकिन, ये भी नहीं भूलना चाहिए कि नीतीश कुमार कतई एकनाथ शिंदे नहीं हैं. अगर ऐसा कोई भी मानता है तो वो खुद की खुशामद कर रहा है. 

नतीजे अलग आए, फिर तो बात ही खत्म हो जाती है. लेकिन, एनडीए की जीत की सूरत में भी नीतीश कुमार को एकनाथ शिंदे बनाना नामुमकिन तो नहीं, लेकिन बहुत ही मुश्किल है. क्योंकि, उनके चाहने वाले और भी हैं. अगर नीतीश कुमार का संदेश मिला, तो लालू यादव पहले ही बता चुके हैं कि उनके लिए दरवाजा हमेशा खुला है. चूंकि राजनीति में कुछ भी संभव है, इसलिए अगर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने में लालू यादव सफल नहीं हो पाए, तो बीजेपी को रोकने के लिए कुर्बानी भी दे सकते हैं. 

और, इस तरह सबको मालूम है. करीब करीब तो मालूम है ही. महागठबंधन जीता तो कौन मुख्यमंत्री होगा? और एनडीए जीता तो भी कौन हो सकता है?

नीतीश कुमार अभी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन आगे?

बिहार चुनाव के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे या नहीं, ये सवाल उछाल दिया गया है. लेकिन, नीतीश तो नीतीश हैं. अगर समोसे में आलू रहने तक बिहार में लालू रह सकते हैं, तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री क्यों नहीं बने रह सकते हैं? ये वो सवाल है जो बीजेपी को बरसों से परेशान कर रहा है. और, दिलचस्प बात ये है कि बीजेपी अब तक सवालों का जवाब नहीं ढूंढ पाई है. सुशील मोदी को दरकिनार करने से लेकर, सम्राट चौधरी को, डिप्टी सीएम बनाकर, बिहार की बिसात पर नीतीश कुमार को शह देने तक. 

2014 के लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के कारण कुछ दिन के लिए नीतीश कुमार ने अपने मन से कुर्सी छोड़ी जरूर थी, लेकिन जब मन हुआ, फिर से पकड़कर बैठ गए – और मजाल नहीं किसी की जो अब तक वो कुर्सी हिला सका हो. कैमरे पर कुछ भी बोला जा सकता है, लेकिन एक्शन तो होता नहीं.

एक नैरेटिव चलाया जा रहा है कि नीतीश कुमार बीमार हैं. और, अपनी हरकतों से वो बार बार बीमार होने का सबूत भी दिखा देते हैं, लेकिन वो कितने बीमार हैं या तो वो खुद जानते हैं, या वे लोग जो उनके बेहद करीब हैं. ये करीब गुजरते वक्त के साथ बदलते रहते हैं. ताजा मामला एक महिला को मंच पर माला पहनाने को लेकर हो रहा विवाद है. जब उनको रोका जाता है, तो नीतीश कुमार कहते हैं, गजब आदमी है भाई!

मतलब, आगे भी नीतीश कुमार ही बने रहेंगे. कैसे बने रहेंगे, ये तो वो जानते ही हैं. जितना बीजेपी को डर है, उतना ही औरों को भी है. जितना बीजेपी को नीतीश कुमार पर भरोसा है, उतना ही लालू यादव को भी है. जितना बीजेपी में नीतीश को लेकर अविश्वास है, बिल्कुल उतना ही, या उससे ज्यादा भी, लालू यादव को है – लेकिन, नीतीश कुमार ऐसी जगह बैठे हैं जहां वो हर किसी के काम के हैं. हर हाल में काम के हैं. 

चाहे कोई सुशासन पर सवाल उठाए, या फिर नीतीश कुमार की सेहत पर – नीतीश कुमार के वोटर को लगता नहीं बहुत फर्क नहीं पड़ता है. ग्राउंड जीरो से रिपोर्ट तो ऐसी भी आ रही हैं – बाकी बिहार में लोगों ने बदलाव का मन बना लिया हो, तो क्या कहा जा सकता है.

बिहार में चैलेंजर तो तेजस्वी यादव ही हैं

बेशक, तेजस्वी यादव महागठबंधन का अघोषित चेहरा हैं, ये बात कांग्रेस के नेता भी घुमा फिरा कर मानते हैं. पूछे जाने पर भी ऐसे ही संकेत भी देते हैं – लेकिन, सीधे सीधे हां या ना बोलने से बचने की ही कोशिश होती है. ये राहुल गांधी की स्ट्रैटेजी हो या जो लोग बिहार में कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं, उनकी भी हो सकती है. 

तेजस्वी यादव अपनी तरफ से पूरी ताकत से बता रहे हैं कि मुख्ममंत्री का चेहरा तो वही हैं, लेकिन राहुल गांधी के सवाल टाल जाने पर उनका चेहरा बता देता है कि कैसा लगता है. तेजस्वी यादव को राहुल गांधी के मुहर की उतनी फिक्र क्यों रहती है? 

ताजा प्रेस कांफ्रेंस की ही बात करें, क्या किसी को लगा कि तेजस्वी यादव महागठबंधन के सीएम फेस नहीं हैं? जैसे 2020 में पहली दस्तखत से 10 लाख नौकरियां देने का वादा किया था, या हाल ही में हर घर में सरकारी नौकरी का वादा किया था – जीविका दीदियों के मामले में भी बिल्कुल उसी आत्मविश्वास से वादे कर रहे थे. 

निश्चित तौर पर महागठबंधन में सीटों के बंटवारे में आपसी सहमति नहीं बन पाई है. कई सीटों पर आपस में ही भिड़े हुए हैं, जिन्हें दोस्ताना मुकाबला बताया जा रहा है. फिर भी ये उम्मीद भी जताई जा रही है कि चीजों को बेहतर करने का ऑप्शन खत्म नहीं हुआ है. वैसे भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बिहार से हाल फिलहाल दूरी बना लेने के बाद तेजस्वी यादव के अलावा कोई चेहरा नजर तो नहीं आ रहा है. 

क्या ये चुनाव भी लालू बनाम नीतीश ही है?

बहुत हद तक तो यही लगता है कि ये चुनाव भी लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच ही लड़ा जा रहा है. तब भी जब लालू यादव व्हीलचेयर पर पेशी के लिए कोर्ट पहुंचते हैं, और उनके राजनीतिक विरोधी दावा करते हैं कि घर पर तो वो बैडमिंटन खेलते हैं. लेकिन, बिहार में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जिसे लालू यादव पर ही भरोसा है. बिहार के बीते हुए कल पर भरोसा है. बीते हुए कल में भी लालू यादव का वोटर अपना भविष्य देखता है – और तेजस्वी यादव पर बस उसी विरासत को संभालने की जिम्मेदारी है. ये जिम्मेदारी वो कहां तक निभा पाते हैं, जानने के लिए नतीजे का इंतजार है. 

तेजस्वी यादव को लोग वैसे ही ले रहे हैं, जैसे SIR या भ्रष्टाचार के मुद्दे को. तेजस्वी यादव अब भी लालू यादव के साये से पूरी तरह निकल नहीं पाए हैं. भले ही वो पोस्टर पर लालू यादव और राबड़ी देवी की तस्वीर लगाने से परहेज करने लगे हों. भले ही वो जंगलराज के हमलों की धार कम करने के लिए माफी भी मांग चुके हों. भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनको जंगलराज का युवराज बता रहे हों. तेजस्वी यादव भले ही सबको सरकारी नौकरी देने का वादा करें, लेकिन उनके वादे से कहीं ज्यादा लोगों को लालू यादव की राजनीति पर भरोसा है. 

लालू यादव और राबड़ी देवी का बीता हुआ शासन भले ही बीजेपी और नीतीश कुमार के लिए जंगलराज हो, लेकिन आरजेडी के कोर वोटर के लिए अब भी सामाजिक न्याय का पैमाना वही है. वही बीता हुआ कल जिसे नीतीश कुमार और बीजेपी जंगलराज बोलकर अब तक प्रचारित करते और जिसकी बदौलत चुनाव जीतते आए हैं. फिर भी तेजस्वी अपना सवाल जोर देकर नहीं पूछ पाते कि उस जंगलराज के 15 साल से ज्यादा तो सुशासन के दावे की अवधि हो चुकी है? 

राहुल गांधी की गैरमौजूदगी में पप्पू यादव खासे एक्टिव हैं. पप्पू यादव बिहार की लड़ाई को मोदी बनाम राहुल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. और, लगता है राहुल गांधी को अब बिहार चुनाव से कोई खास मतलब ही नहीं है. जो राहुल गांधी दिल्ली चुनाव बीच में छोड़कर बिहार दौरे पर निकल जाते थे, घूम घूम कर वोटर अधिकार यात्रा करते रहे, वो सीन से गायब हैं. बिहार में तो सीन से गायब हैं ही. दिल्ली में लड्डू बनाएं, या जलेबी तलें. अलग बात है.

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