प्रशांत किशोर का विक्टिम कार्ड, बीजेपी की ‘जबरदस्ती’ या राजनीतिक नाटक? – why Prashant Kishor accused BJP leaders stealing Jansuraj candidates opns2

प्रशांत किशोर का विक्टिम कार्ड, बीजेपी की ‘जबरदस्ती’ या राजनीतिक नाटक? – why Prashant Kishor accused BJP leaders stealing Jansuraj candidates opns2


बिहार चुनाव में जिस तरह जन सुराज पार्टी उभर रही थी, उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि वो इस बार कुछ बड़ा उलटफेर करेगी. पर जिस तरह अचानक पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने विक्टिम कार्ड खेलना शुरू किया है उससे उनकी पार्टी की स्थिति बिहार चुनाव में संदिग्ध होती जा रही है. इसके पहले भी प्रशांत किशोर पर कई पत्रकारों के साथ बहुत रुखा व्यवहार करने का आरोप लगा था. कुछ पत्रकारों के साथ उन्होंंने जिस तरह की बातचीत की उसमें साफ तौर पर प्रशांत का फ्रस्ट्रेशन नजर रहा था.

21 अक्टूबर को पटना प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने दावा किया कि बीजेपी की टॉप लीडरशिप – गृह मंत्री अमित शाह और शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने उनके तीन प्रत्याशियों का ‘जबरन’ नामांकन वापस करवा दिया. दानापुर से अखिलेश कुमार उर्फ मुतुर शाह, ब्रह्मपुर से सत्य प्रकाश तिवारी और गोपालगंज से शशि शेखर सिन्हा बीजेपी के दबाव में झुक गए. इस तरह की घटनाएं छोटी पार्टियों में होती रही है पर जिस तरह का आरोप प्रशांत किशोर ने बीजेपी की टॉप लीडरशिप पर लगाया उसे साधारण नहीं माना जा सकता है. या तो ऐसा ही हुआ है, या फिर प्रशांत किशोर को अहसास हो गया है कि बिहार विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी की नाव डगमगा रही है.

जन सुराज पार्टी क्या ड्रामा कर रही है?

बीजेपी नेताओं पर लगाए अपने आरोपों को पुख्ता साबित करने के लिए पीके कुछ फोटो दिखाते हैं. फोटो में उनके उम्मीदवार शाह और प्रधान के साथ नजर आ रहे हैं. किशोर कहते हैं कि लोकतंत्र की हत्या हो रही है. अब सवाल उठता है कि क्या यह सच्ची पीड़ा है या चुनावी ड्रामा? और क्या इससे जन सुराज के बिहार चुनावी सफर पर असर पड़ेगा? 

दरअसल प्रशांत किशोर का सफर बिहार की राजनीति में शुरू से ही विवादास्पद रहा है. 2015 में महागठबंधन (जेडीयू-आरजेडी) की जीत के सूत्रधार के रूप में वे हीरो बने. नीतीश-लालू की जोड़ी को सत्ता दिलाने में उनकी रणनीति ने चमत्कार किया. लेकिन जब नीतीश ने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया, तो कुछ दिन बाद पीके को बाहर का रास्ता भी दिखा दिया था. उसके बाद 2022 में जन सुराज अभियान शुरू किया. एक पदयात्रा, जो बिहार के हर गांव तक पहुंची. जून 2024 में इस मुहिम को राजनीतिक पार्टी बना दिया गया. 

भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पलायन के खिलाफ नई वैकल्पिक राजनीति करने का प्रशांत किशोर ने बीड़ा उठाया. यही कारण रहा कि उन्होंने सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया. जाहिर है कि यह एनडीए और महागठबंधन दोनों को चुनौती देने वाला कदम था. लेकिन हकीकत? पार्टी बनते ही आंतरिक कलह शुरू हो गई. टिकट वितरण पर आरोप लगे कि ‘कैश-फॉर-टिकट’ चल रहा है. अक्टूबर 2025 में पहली लिस्ट जारी होते ही संस्थापक सदस्यों ने विद्रोह कर दिया. एक पूर्व सदस्य ने कहा, टिकट सिर्फ उनको मिले जो लाखों रुपये दे पाया. एक कार्यकर्ता ने प्रोटेस्ट किया और कहा कि हमने पैदल यात्रा में साथ दिया, लेकिन टिकट किसी बाहरी को मिला.

केजरीवाल स्टाइल की नकल 

21 अक्टूबर को पीके ने कहा, बीजेपी डर गई है इसलिए वो सूरत मॉडल दोहरा रही हैं, जहां विपक्ष के उम्मीदवारों को नाम वापस करवाकर अपना प्रत्याशी अकेला छोड़ दिया. दानापुर में मुतुर शाह को नामांकन भरने नहीं जाने दिया गया. कथित तौर पर शाह के साथ पूरे दिन बंधक बनाकर रखा गया. ब्रह्मपुर में डॉक्टर तिवारी ने रविवार तक कैंपेन किया, लेकिन सोमवार को नाम वापस ले लिया. गोपालगंज में सिन्हा ने स्वास्थ्य कारण बताया, लेकिन पीके का दावा है कि रात 11 बजे बीजेपी विधायक ने दबाव डाला.

उन्होंने कहा, बीजेपी सोचती है कि जीत जाएंगे, चाहे वोट किसे भी जाएं. लेकिन लोकसभा में 240 पर सिमट गए जबकि 400 का दावा था. अब बिहार में जन सुराज ने उनका कॉन्फिडेंस हिला दिया है. चुनाव आयोग को शिकायत करने का ऐलान किया, लेकिन स्वीकार किया कि वे सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं.

यह बयान वायरल हो गया. एक्स पर #जन_सुराज_पीड़ित ट्रेंड करने लगा, लेकिन ज्यादातर मीम्स में पीके को ‘ड्रामा किंग’ कहा जा रहा है. एक यूजर ने लिखा कि पीके ने विक्टिम कार्ड खेलना जरूर यह केजरीवाल से सीखा होगा. दूसरी तरफ बीजेपी ने साफ इनकार किया है. प्रवक्ता अजय अलोक ने कहा, पीके रंगीन सियार हैं, जिनका रंग फीका पड़ रहा है. 14 नवंबर के बाद बिहार में नजर नहीं आएंगे. राजीव प्रताप रूडी ने तंज कसा, बिहार समझने के लिए कम से कम एक चुनाव तो लड़ लिया होता. बीजेपी ने काउंटर-क्लेम किया कि जन सुराज से ही उनके पास लोग आ रहे हैं.

क्या यह पीके का ध्यान खींचने का प्रयास है? 

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पीके का यह कार्ड ध्यान खींचने का प्रयास है. नामांकन की आखिरी तारीख गुजर चुकी, तीन सीटें कम हुईं हैं पर 240 पर लड़ना कोई छोटी बात नहीं है. तो क्या यह डैमेज कंट्रोल का प्रयास है? क्या जन सुराज की ग्राउंड रिपोर्ट्स कमजोर मिल रही है. किसी भी सर्वे में एनडीए और आरजेडी के बाद ही जनसुराज को स्थान मिल रहा है. वह भी 5 से 10 सीट तक ही जीतते हुए दिख रही है जनसुराज पार्टी.

पीके ने दावा किया कि वे ‘गेम चेंजर’ हैं, लेकिन कार्यकर्ता भाग रहे हैं, टिकट विवाद में पार्टी टूट रही है. पीके का इतिहास देखें तो विक्टिम कार्ड नया नहीं है. 2020 में नीतीश के साथ ब्रेकअप के बाद उन्होंने ‘सिस्टम के खिलाफ’ होने की बात की. 2022 पादयात्रा में बिहार के हर कोने में पहुंचे, लेकिन लोकसभा 2024 में जन सुराज ने कोई सीट नहीं लड़ी. अब विधानसभा में पहला टेस्ट. राघोपुर से वे खुद लड़ सकते थे तेजस्वी यादव के खिलाफ, पर लड़े नहीं. 

पीके ने खुद चुनाव न लड़कर वर्कर्स को हतोत्साहित किया

प्रशांत किशोर का बिहार विधानसभा चुनाव खुद न लड़ने का फैसला उनकी जन सुराज पार्टी के कमजोर होने का संकेत देती है. 243 सीटों पर उम्मीदवार उतारने का दावा करने वाली पार्टी के लिए यह निर्णय रणनीतिक चूक साबित हो सकता है. पीके ने 2022 में शुरू की पदयात्रा से बिहार के गांव-गांव में नई राजनीति का नारा बुलंद किया, भ्रष्टाचार और पलायन के खिलाफ आवाज उठाई. लेकिन राघोपुर जैसी हाई-प्रोफाइल सीट से तेजस्वी यादव के खिलाफ न उतरना उनके ‘गेम चेंजर’ दावे पर सवाल उठाता है.

पीके ने कहा, लोगों को साथ खड़ा करना मेरा लक्ष्य है, न कि व्यक्तिगत जीत. लेकिन बिहार की जाति-आधारित और मसलपावर वाली राजनीति में लीडर का चेहरा बहुत मायने रखता है. नीतीश, लालू, तेजस्वी – सभी ने खुद मैदान में मोर्चा संभाला. पीके का पीछे हटना कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ सकता है.  पीके की अनुपस्थिति से वोटरों में भरोसा कम होगा, क्योंकि बिहार में व्यक्तिगत नेतृत्व और जमीनी उपस्थिति अहम है. 2024 के लोकसभा में न लड़ने की गलती के बाद यह दूसरी चूक है. फंडिंग और संगठन की कमी पहले से चुनौती थी. अगर पीके राघोपुर से लड़ते, तो तेजस्वी के खिलाफ मुकाबला सुर्खियां बटोरता, पार्टी को ऊर्जा मिलती.

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