किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है इस औषधीय पौधे की खेती, जानिए उगाने का सही तरीका – Ashwagandha farming tips cultivation methods Ashwagandha ki kheti szlbs

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अश्वगंधा एक आयुर्वेदिक औषधि के रूप में सदियों से इस्तेमाल होता आया है, इसे इंडियन जिनसेंग और विंटर चेरी के नाम से भी जाना जाता है. इसकी जड़ें आयुर्वेदिक दवाएं और हर्बल प्रोडक्ट्स बनाने में उपयोग होती हैं. खास बात है कि यह पौधा सूखे और गर्म इलाकों में भी आसानी से उगाया जा सकता है. यही वजह है कि आज किसान और बागवानी करने वाले लोग इसकी खेती की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं.

कृषि विशेषज्ञों के अनुसार, अश्वगंधा सीधा बढ़ने वाला पौधा है. इसकी ऊंचाई करीब 1.4 से 1.5 मीटर हो सकती है. ये पौधा सूखे और गर्म इलाकों में आसानी से उगने के लिए जाना जाता है. अश्वगंधा को इंडियन जिनसेंग, पॉइजन गूजबेरी या विंटर चेरी के नाम से भी जानते हैं. ये एक हर्बल प्लांट है, जो भारत के नॉर्थ-वेस्ट और सेंट्रल रीजन में खूब उगाया जाता है.

भारत के किन राज्यों में उगाया जाता है अश्वगंधा?

अश्वगंधा की पत्तियां हल्की हरी और अंडाकार होती हैं, जो करीब 10–12 सेमी लंबी होती हैं. इसके फूल छोटे, हरे और घंटी के शेप में होते हैं. इसमें जब फल पकता है, तो उसका रंग आमतौर पर ऑरेंज-रेड हो जाता है. मध्य प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश भारत में अश्वगंधा की खेती करने वाले प्रमुख राज्य हैं. इन इलाकों की जलवायु और मिट्टी इनके पौधों के लिए उचित मानी जाती है. इन इलाकों में इसका प्रोडक्शन बड़े पैमाने पर होता है.

स्वास्थ्य संबंधी फायदे

अश्वगंधा इम्यून सिस्टम को मजबूत बनाने में मदद करता है, ये कोलेस्ट्रॉल को कम करने, शुगर लेवल को कंट्रोल में रखने, डिप्रेशन आदि में मदद करता है. इसके अलावा भी अश्वगंधा के कई फायदे बताए जाते हैं.

मिट्टी का चयन

माना जाता है कि अश्वगंधा की फसल रेतीली दोमट या हल्की लाल मिट्टी में अच्छी तरह उग सकती है, लेकिन इसके लिए मिट्टी में पानी की निकासी उचित होना भी जरूरी होता है.

जमीन को तैयार करना

अश्वगंधा की खेती के लिए चुनी गई जमीन की मिट्टी को जुताई करके अच्छे से भुरभुरी बनाया जाता है. बरसात के शुरू होने से पहले, मिट्टी को बारीक और नरम बनाने के लिए 2 से 3 बार जुताई करना फायदेमंद माना जाता है. गोबर की खाद का इस्तेमाल इसे फायदा पहुंचा सकता है.

बीज, नर्सरी और पौधे रोपण की प्रक्रिया

अश्वगंधा की फसल बीजों से तैयार की जाती है. इसके लिए हाई-क्वालिटी बीज चुनना फायदेमंद माना जाता है, जिन्हें अच्छी तरह तैयार की गई नर्सरी बेड में बोया जाता है. बीजों को सीधे खेत में छिटकाव विधि से भी बोया जा सकता है, लेकिन ट्रांसप्लांटिंग मेथड यानी नर्सरी से पौधों को खेत में लगाना बेहतर माना जाता है.

एक्सपोर्ट लेवल की क्वालिटी के लिए अच्छी तरह मेंटेन की गई नर्सरी होना जरूरी माना जाता है. नर्सरी बेड को जमीन से थोड़ा ऊंचा बनाना चाहिए और उसमें गार्डन कम्पोस्ट और रेत अच्छी तरह मिलाकर तैयार करना चाहिए. 1 हेक्टेयर खेत में रोपाई के लिए करीब 5 किलो बीज की जरूरत पड़ सकती है. 

नर्सरी जून और जुलाई के महीने में तैयार की जाती है, बीजों को मॉनसून शुरू होने से ठीक पहले बोया जाता है और ऊपर से हल्की रेत डालकर ढक दिया जाता है. बीज आमतौर पर 6 से 7 दिन में अंकुरित हो जाते हैं, जब पौधे 35 से 40 दिन के हो जाएं, तब उन्हें मुख्य खेत में ट्रांसप्लांट किया जा सकता है.

बीज बोने का प्रोसेस

मिट्टी में खाद मिला देने के बाद खेत में 50 से 60 सेमी की दूरी पर मेड़ें तैयार करनी चाहिए, 35 से 40 दिन पुराने हेल्दी पौधे को 30 सेमी की दूरी पर लगाना उचित माना जाता है. बीज बोने के लिए अगर आप छिटकाव विधि (broadcasting) अपनाते हैं, तो 12 किलो बीज प्रति हेक्टेयर काफी माना जाता है, लेकिन लाइन से लाइन बुवाई का तरीका ज्यादा बेहतर हो सकता है. इससे जड़ों की ग्रोथ अच्छी होती है.

बीजों को 1 से 3 सेमी गहराई में बोना उचित माना जाता है, जिसके बाद इसे ऊपर से हल्की मिट्टी से ढक देना चाहिए. इसे लगाते वक्त लाइन से लाइन की दूरी 20 से 25 सेमी और पौधे से पौधे की दूरी 8 से 10 सेमी रखना उचित माना जाता है. स्पेसिंग मिट्टी की उर्वरता और अश्वगंधा की किस्म पर भी निर्भर कर सकती है. पौधों को मिट्टी में अच्छी तरह जमाने के लिए रोपाई के समय हल्की सिंचाई करना जरूरी होता है. अश्वगंधा के पौधे को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है, इसके बेहतर उत्पादन के लिए 8 से 10 दिन में एक बार पानी देना उचित माना जा सकता है.

कटाई का समय

पौधे की कटाई का समय तब होता है जब इसके पौधे की पत्तियां सूखने लगती है और उस पर लाल-नारंगी रंग के फल दिखने लगते हैं. बोने के 160 से 180 दिन बाद अश्वगंधा की फसल कटाई के लिए तैयार मानी जाती है.

कटाई के लिए पूरा पौधा उखाड़ दिया जाता है, क्योंकि इसकी जड़ें ही सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाती है. इसके बाद, तने को क्राउन (जड़ के ऊपर का हिस्सा) से 1–2 सेमी ऊपर काटकर जड़ को बाकी हिस्सों से अलग किया जाता है. इसके बाद जड़ों को 8 से 10 सेमी के छोटे टुकड़ों में काटा जाता है ताकि उन्हें आसानी से सुखाया जा सके.

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