इजरायल के धमकाने के बाद भी यूके, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा ने फिलिस्तीन को एक देश का दर्जा दे दिया. फिलहाल फिलिस्तीन लगातार इंटरनेशनल सुर्खियों में है और एक के बाद एक देश उसे मान्यता दे रहे हैं. दूसरी तरफ दर्जनभर के करीब ऐसे क्षेत्र हैं जो खुद को देश घोषित कर चुके, लेकिन उन्हें किसी ने आधिकारिक तौर पर नहीं अपनाया.
क्या है सोमालीलैंड का मसला
सोमालीलैंड ने साल 1991 में सोमालिया से अलग होकर आजादी का एलान कर दिया था. तब से यहां लोकतंत्र है, चुनाव होते हैं, प्रशासन ठीक है और सेना भी मजबूत है. इसके बावजूद, सोमालीलैंड को इंटरनेशनल मान्यता नहीं मिल सकी.
इसकी बड़ी वजह है, अफ्रीकी यूनियन की पॉलिसी. असल में यूनियन ने अफ्रीकी देशों में एकता बनाए रखने के लिए काम शुरू किया. इसमें माना गया कि अगर कोई क्षेत्र अलगाववादी तौर-तरीके रखे तो चाहे वो कितनी ही लोकतांत्रिक सरकार बना और चला ले, उसे मौजूदा देश से अलग नहीं किया जाएगा.
अफ्रीका में अलगाववादी आंदोलन काफी समय से चले आ रहे हैं. अगर सोमालीलैंड को स्वीकार कर लिया जाए तो फिर सहेल, नाइजर, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो जैसे कई देश अड़ जाएंगे कि उन्हें भी आजादी चाहिए. अफ्रीकी यूनियन के मुताबिक, बॉर्डर में कोई बदलाव तभी मान्य होगा, जब उसे संबंधित देश भी मंजूरी दें.
सोमालीलैंड की जमीन पर पहले सोमालिया का दावा रहा. दुनिया के ज्यादातर देश उसे तकनीकी रूप से उसे सोमालिया का ही हिस्सा मानते हैं. अब अगर उसे अलग मान लिया जाए तो ये डिप्लोमेटिक गड़बड़ी होगी, जिसका सीधा असर मान्यता देने वाले देश और सोमालिया के रिश्ते पर होगा. अब इसका असर ये हो रहा है कि सोमालीलैंड के पास कोई इंटरनेशनल मदद नहीं. ऐसे में देश की इकनॉमी गड़बड़ा चुकी है और सशस्त्र संघर्ष फिर दिखने लगे हैं.

और कौन से इलाके खुद को देश मान रहे
– ताइवान और चीन का मसला अलग ही है. ताइवान ने साल 1949 में चीन से अलग होने की घोषणा कर दी थी. हालांकि उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली क्योंकि ज्यादातर देश वन चाइना नीति को मानते हैं और चीन से अपनी बिगाड़ नहीं चाहते.
– कोसोवो ने लगभग दो दशक पहले सर्बिया से अलगाव चाहा था. इसके बाद से लगभग 100 देशों ने इसे मान्यता दी, लेकिन रूस, चीन और कुछ यूरोपीय देश इसे अपनाने से बचते रहे. वजह वही, बिगाड़ का डर.
– सहारा अरब डेमोक्रेटिक रिपब्लिक भी है, जो मोरक्को से अलग होना चाहता है. कुछ अफ्रीकी देशों ने मान्यता दी लेकिन ज्यादातर इससे दूर ही रहे.
– नागोर्नो-कराबाख पिछले कई सालों से चर्चा में है. इसने नब्बे की शुरुआत में आर्मेनिया से अलग होने की कोशिश की. आर्मेनिया इसपर राजी है लेकिन बीच में आ गया अजरबैजान, जो कि नागोर्नो-कराबाख को अपना मानता है.
– इनके अलावा भी कई देशों में बहुत से अलगाववादी आंदोलन चल रहे हैं. इनमें रूस से लेकर अमेरिका तक शामिल हैं.
क्यों नहीं मिलती मान्यता
अंतरराष्ट्रीय मान्यता सिर्फ यह देखने से नहीं मिलती कि कोई क्षेत्र खुद को देश घोषित कर दे और वहां लोकतंत्र भी आ जाए. मान्यता के पीछे राजनीतिक शतरंज और भू-रणनीतिक समीकरण छिपे होते हैं. सोमालीलैंड लंबे समय से स्थिर है लेकिन कोई इसे अपना नहीं रहा क्योंकि डर है कि इसके बाद पूरे अफ्रीका में अलगाववाद की लहर चल पड़ेगी. और अफ्रीका ही क्यों, पूरी दुनिया चपेट में आ जाएगी. यही वजह है कि संबंधित देश चुप रहे तो सबके सब मुंह सिल लेते हैं.

फिर फिलिस्तीन को क्यों मिल रही मान्यता, जबकि इजरायल ने उसे स्वीकार नहीं किया
फिलिस्तीन को अस्सी के दशक में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (PLO) ने औपचारिक रूप से स्वतंत्र देश घोषित कर दिया. तब से कई अरब और मुस्लिम देशों ने उसे मान्यता दी. अब यूरोपीय देश भी इसमें शामिल हो रहे हैं. हालांकि अमेरिका इसे लेकर अलग सोच रखता है. वो इजरायल के सपोर्ट में है और किसी हाल में फिलिस्तीन को अलग देश बनने से रोकना चाहती है. चूंकि अमेरिका महाशक्ति है, लिहाजा उससे कोई पंगा नहीं लेना चाहता और इस मुद्दे को वक्त के हवाले कर चुका. यानी वक्त जिस करवट बैठेगा, वो उसे मान लेंगे.
अमेरिका से ठंडेपन के बीच अब यूरोपीय देश भी उसके सपोर्ट में आ रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि इससे उन्हें अरब और इस्लामिक देशों के रूप में नई जमीन, नया सपोर्ट मिल सकता है.
दूसरा- रूस और यूक्रेन के बीच जंग में यूरोप में सुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ी. कई यूरोपीय देश खुद को घिरा हुआ पा रहे हैं. ऐसे में पहली बार उन्हें फिलिस्तीन मानवाधिकार मुद्दे की तरह दिखने लगा. उसे सपोर्ट करना उन्हें कई अप्रत्यक्ष फायदे दे सकता है.
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