भारत में राजनीतिक पार्टियों के दफ्तर अक्सर चर्चा में रहते हैं. कभी चर्चा में आने का कारण होता है किसी पार्टी का भव्य ऑफिस तो कभी किसी पार्टी के कार्यालय किराया या स्थानांतरण की वजह से खबरों में आ जाते हैं. अभी भी कई मामले कोर्ट में हैं, जिनमें पार्टियां अपने ऑफिस को लेकर केस लड़ रही हैं. लेकिन, कभी आपने सोचा है कि आखिर पार्टियों के पास इतने बड़े-बड़े दफ्तर की जमीन कहां से आती है या क्या पार्टी की ओर से जमीन खरीद जाती है और इन जमीनों पर मालिकाना हक किसका होता है? तो आज हम आपको बताते हैं कि पार्टी ऑफिस बनाने को लेकर क्या नियम हैं…
चलिए, सबसे पहले आपको बताते हैं कि किसी भी पार्टी ऑफिस के लिए सरकार को जमीन कैसे मिलती है…
बता दें कि राजनीतिक पार्टियों को अपने ऑफिस खोलने के लिए जमीन मिलती है. सरकार भी राजनीतिक पार्टियों को जमीन अलॉट करती है, लेकिन इससे जुड़े कुछ नियम हैं. इन नियमों के आधार पर सरकार की ओर से पार्टी ऑफिस के लिए जमीन दी जाती है.
इसके अलावा कई राजनीतिक पार्टियां किराए या लीज पर जमीन लेती है और कुछ केस में कोई संस्था या व्यक्ति अपनी प्राइवेट प्रॉपर्टी पर किसी पार्टी को ऑफिस बनाने की अनुमति देते हैं. इसके अलावा कुछ पार्टी कार्यालय उनके नेताओं के सरकारी या प्राइवेट घर पर बने होते हैं. जैसे किसी सांसद के सरकारी घर पर पार्टी का ऑफिस चलाया जा रहा हो.
अब सवाल है कि सरकार किस आधार पर किसी पार्टी को दफ्तर के लिए जमीन देती है. तो आपको बता दें कि दिल्ली में राजनीतिक दलों को जमीन अलॉट करने का अहम काम L&DO (Land & Development Office) का है. इसके अलावा राज्यों में वहां के विकास प्राधिकरण जमीन आवंटित करते हैं.
क्या हैं इसके नियम?
सरकार की ओर से नेशनल या राज्य स्तर की पार्टियों को जमीन आवंटित की जाती है. नेशनल पार्टियों को 4 एकड़ तक जमीन दी जाती है. इसमें सांसद की संख्या के आधार पर ही जमीन की साइज का भी निर्धारण किया जाता है. इसके साथ ही जैसे ही जमीन आवंटित होती है, उसके 3 साल के अंदर वहां बिल्डिंग बनानी जरूरी होती है.
बता दें कि सरकार की ओर से जमीन लीज पर दी जाती है और फ्रीहोल्ड होती है. जब जमीन अलॉट हो जाती है तो पार्टी को अपने पुराने सरकारी ऑफिस में चल रहे कार्यालय को खाली करना होता है.
किस पार्टी को कितनी जमीन मिलेगी?
13 जुलाई 2006 को केंद्र सरकार ने “Policy on Allotment of Land to Political Parties” जारी की थी. इसमें राजनीतिक पार्टियों को जमीन आवंटित किए जाने को लेकर नियम तय किए गए थे. हालांकि, सरकार की ओर से बाद में कुछ संशोधन भी किए गए हैं. सांसदों की संख्या के आधार पर पार्टी ऑफिस के लिए जमीन दी जाती है.
इसके अलावा दिल्ली में कई छोटी पार्टियों को विट्ठल भाई पटेल हाउस में राजनीतिक ऑफिस के लिए जगह दी जाती है, जिसके लिए पार्टियों को किराया देना होता है.
अगर कुछ पार्टियों के उदाहरण से समझें तो कांग्रेस का राष्ट्रीय मुख्यालय दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग के पास कोटला रोड़ पर है. हालांकि पार्टी पुराने सरकारी बंगले (जैसे 24 Akbar Road) का इस्तेमाल कर रही है. साल 1978 में इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने 24, अकबर रोड पर अपना ऑफिस शिफ्ट किया था. उस वक्त सांसद गद्दाम वेंकटस्वामी ने अपना आधिकारिक आवास- 24, अकबर रोड पार्टी को दे दिया था और कांग्रेस वहां आ गई थी. उस वक्त से कांग्रेस कार्यालय वहां से ही चल रहा है.
किसका होता है मालिकाना हक?
सरकार की ओर से आवंटित जमीन पर बने राजनीतिक पार्टी के ऑफिस का मालिकाना हक सरकार का ही होता है. जो भी जमीन L&DO, DDA या राज्य सरकार ने अलॉट की है, उसकी मालिक सरकार होती है. पार्टी सिर्फ उसका उपयोग कर सकती है. हालांकि, उस जमीन पर पार्टी जो बिल्डिंग बनाती है, उस पर हक पार्टी का होता है. इसके बदले पार्टियों को सरकार को पैसे भी देने होते हैं.
लीज पर मिली इस जमीन को पार्टी बेच नहीं सकते और न ही किसी अन्य संस्था को ट्रांसफर कर सकती है. साथ ही सरकार के पास जमीन वापस लेना का अधिकार होता है. इसके अलावा अगर पार्टी ने किसी प्राइवेट संस्था से किराए या लीज पर जमीन ली है तो ये उनका व्यक्तिगत एग्रीमेंट हो सकता है.
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