6 मिनट पहलेलेखक: आशीष तिवारी/भारती द्विवेदी
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कभी ‘सत्या’ का ‘भीखू म्हात्रे’, कभी ‘शूल’ का ‘समर प्रताप सिंह’, कभी राजनीति का ‘वीरेंद्र प्रताप’, कभी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ का ‘सरदार खान’, कभी ’फैमिली मैन’ का ‘श्रीकांत तिवारी’ तो कभी ‘पिंजर’ का ‘राशिद’, जितने किरदार, उतनी पहचान। मनोज बाजपेयी ने अपनी एक्टिंग से इन सारे किरदारों में जान फूंक दी।
समय बीतने के साथ उनके निभाए किरदार ऐसे कल्ट क्लासिक बन चुके हैं कि लोग उनकी पुरानी फिल्मों के वीडियो की रील ढूंढकर शेयर करते हैं। उनके कई रोल वायरल मीम्स का हिस्सा हैं। थोड़ी देर से ही, लेकिन मनोज बाजपेयी ने सफलता का स्वाद चखा, जिसके वो हकदार थे।
आज की सक्सेस स्टोरी में जानिए मनोज बाजपेयी की सफलता की कहानी पीयूष पांडे की किताब ‘मनोज बाजपेयी: कुछ पाने की ज़िद’ की जुबानी…

बिहार में जन्म, लेकिन यूपी से पुराना नाता
मैं बिहार के पश्चिमी चंपारण के बेतिया शहर के पास बेलवा गांव में पैदा हुआ। वैसे तो बिहार मेरा घर और पहचान है, लेकिन मेरी जड़ें उत्तर प्रदेश के रायबरेली से भी जुड़ी हैं। मेरे परदादा महावीर प्रसाद बाजपेयी रोजी-रोटी की तलाश में रायबरेली के पसनखेर गांव से पलायन कर बिहार पहुंचे थे।
वो साल कौन सा था, किसी को अच्छे से याद नहीं, लेकिन उस दौरान अंग्रेजों के खिलाफ अवध के किसान एकजुट हो रहे थे। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि 1886 का कुख्यात अवध रेंट एक्ट था। संभवत: इसके आसपास मेरे परदादा बिहार पहुंचे।
मैं बचपन में डरपोक और शर्मीला था। पेट की दिक्कत से मैं कमजोर दिखता। हालांकि इंटर के बाद मैं बिल्कुल बदल गया, ऐसा मेरी मां बताती थीं। पिताजी हमारी पढ़ाई के लिए मेहनत से पैसे जुटाते। चौथी क्लास तक मैंने झोपड़ी वाले स्कूल में पढ़ाई की।
उसके बाद मैं बेतिया शहर के केआर हाई स्कूल से पढ़ा। फिर वहीं के महारानी जानकी सिंह कॉलेज से 12वीं पास की। मेरे पिताजी चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं, लेकिन मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था। वो खुद डॉक्टर बनना चाहते थे, लेकिन आधे नंबर की वजह से उनका दाखिला नहीं हो सका था।
मेरे पिताजी राधाकांत बाजपेयी किसान थे। हम छह भाई-बहनों में सबसे बड़ी बहन थी और मैं दूसरे नंबर पर था। बड़ा भाई भी बाप समान होता है। मैं इस जिम्मेदारी को समझ रहा था, लेकिन मेरे अंदर एक्टिंग करने की आग बचपन से थी। मेरे पिताजी काफी सज्जन और लोकतांत्रिक थे। उन्होंने हमसे उम्मीद नहीं की थी कि हम गांव में ही रहें। मुझ पर घर के काम का प्रेशर भी नहीं डाला।

मुझे फिल्मों का शौक विरासत में मिला है
मेरा पिताजी को कॉलेज में फिल्मों का शौक लगा। वह और उनके दोस्त हर फिल्म ‘फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ देखते। इसका पता हमें एक दिवाली-छठ की सफाई के दौरान चला। फाइलों की सफाई के दौरान मेरी बड़ी बहन के हाथ पिताजी के एफटीआईआई का प्रॉस्पेक्टस लगा। उन्होंने मुझे भी दिखाया।
पिताजी ने बताया कि कॉलेज में वनस्पति विभाग की तरफ से छात्रों को पुणे ले जाया गया था। पिताजी ने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के बारे में सुना था तो वहां चले गए। वहां संयोग से उसी दिन ऑडिशन हो रहा था। उन्होंने एक्टिंग कोर्स में दाखिले का ऑडिशन दे दिया। उस ऑडिशन में उनके साथ मनोज कुमार और धर्मेंद्र भी थे। पिताजी को अभिनय का शौक तो था, लेकिन तैयारी नहीं थी।
पिताजी को फिल्मों से इतना लगाव था कि उन्होंने अपने कॉलेज के दिनों में पार्ट टाइम ‘फिल्मबाबू’ यानी फिल्म की रील वितरक से सिनेमाघर तक लाने का काम भी किया था। मैं कह सकता हूं मेरे अंदर एक्टिंग का कीड़ा पिताजी से आया। एक्टिंग ही नहीं, पिताजी का विद्रोही स्वभाव भी मेरे अंदर है। दिलचस्प बात ये है कि मेरी मां भी बहुत बड़ी फिल्मची थीं।
मां को सच और पिताजी से झूठ बोल दिल्ली आया
जब मैंने ठान लिया कि मुझे दिल्ली जाना है, तब मैंने अपनी मां को मन की बात बताई। मैंने मां से कहा था कि मुझे एक्टर बनना है। मां ने कहा कि पहले ग्रेजुएशन करना होगा। मैंने उनसे वादा किया कि मैं अपनी पढ़ाई पूरी करूंगा, लेकिन मुझे थिएटर ही करना है। इसके अलावा मैं कुछ और नहीं कर पाऊंगा। मां का जवाब आया कि जब तुमने सोच लिया है, तो फिर जाओ।
मुझे मां से अनुमति मिल गई थी, लेकिन पिताजी की सहमति अभी बाकी थी। मैं उन्हें सच भी नहीं बता सकता था कि मुझे एक्टर बनना है। भले ही वो फिल्मों के शौकीन थे, लेकिन उनके ऊपर छह बच्चों की जिम्मेदारी थी। वैसे में वो अपने बड़े बेटे को एक्टिंग का पेशा कैसे चुनने देते? वह फिल्म मैगजीन के नियमित रीडर के तौर पर एक्टर के संघर्ष को बखूबी समझते थे। मैंने उनसे कहा कि मुझे बीएससी करनी है। बेतिया में सेशन लेट होता है, इसलिए मैं दिल्ली से पढूंगा।
मैं जेब में मात्र 500 रुपए और एक बॉक्स लेकर अपने दोस्त रविंद्र चौधरी के साथ दिल्ली रवाना हुआ। वह बॉक्स आज भी मेरे पास है। दिल्ली पहुंचने के पहले ट्रेन तिलक ब्रिज पर रुकी और मैंने खिड़की से झांककर दिल्ली को देखा था। देश की राजधानी में पहुंचने को लेकर मन में घबराहट थी, लेकिन मेरे अंदर से आवाज आई-’इस शहर में मेरा नाम होगा।’
सालों तक मुझे अपना नाम ‘मनोज’ पसंद नहीं था
मेरे दोनों फिल्मची पेरेंट्स ने एक्टर मनोज कुमार की वजह से मेरा नाम रखा। जब मैं पैदा हुआ, तब हिंदी सिनेमा में मनोज कुमार की फिल्मों का जलवा था। उन्हें वह बहुत पसंद थे। मेरे जन्म के पहले पिताजी एफटीआईआई में ऑडिशन भी दे आए थे।
ये अलग बात है कि मुझे कई सालों तक अपना नाम पसंद नहीं था क्योंकि बिहार में ये बहुत कॉमन नाम था। मनोज भूजावाला, मनोज टायर वाला, मनोज मीटवाला और भी ना जाने क्या-क्या। मैंने सोच लिया था कि मैं अपना नाम बदलूंगा और मैंने अपने लिए नया नाम समर भी सोच लिया था।
थिएटर के दौरान मैंने अपना नाम बदलने का सोचा, तब सबने बताया कि इसके लिए कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होगा। पहले एफिडेविट बनेगा, फिर अखबार में विज्ञापन देने होंगे। उस वक्त मेरे पास पैसे नहीं थे तो मैंने सोचा कि चलो जब पैसे कमाऊंगा तब बदल लूंगा।
जब मेरी पहली फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ आई और मुझे पैसे मिले तो मैंने तब नाम बदलने का सोचा। उस वक्त मेरे भाई ने मुझसे कहा कि आप कमाल कर रहे हैं। लोग आपकी पहली फिल्म में मनोज बाजपेयी को देखेंगे और बाद में कुछ और? फिर मैंने सोचा कि चलो अब जो होना था वो हो गया।

दिल्ली में दस साल का लंबा संघर्ष चला
मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन लेना चाहता था, लेकिन इंटरमीडिएट में मेरे अच्छे नंबर नहीं थे। इस वजह से रामजस कॉलेज में एडमिशन नहीं मिला। जैसे-तैसे सत्यवती कॉलेज में इतिहास ऑनर्स में दाखिला मिला। मैं अपने दोस्त रविंद्र और उनके बड़े भाई के साथ मुखर्जी नगर 1010 नंबर के फ्लैट में रहने लगा। दो कमरों का फ्लैट था, जिसमें एक में मैं रहता था और दूसरे में रविंद्र और उसके भाई।
मेरे सामने आर्थिक तंगी थी क्योंकि घर से दो-चार महीनों में एक बार मनीऑर्डर होता था। ऐसे में किचन की जिम्मेदारी रविंद्र के भाई के ऊपर थी। मेरी जेब खाली थी। मैं रविंद्र के कपड़े पहनता और उसी का सामान इस्तेमाल करता।
NSD के एग्जाम में फेल हुआ तो खुदकुशी का ख्याल आया
सत्यवती कॉलेज में पढ़ाई के दौरान मुझे मेरे पहले अभिनय गुरु शम्सुल इस्लाम मिले। वो उसी कॉलेज में प्रोफेसर थे। शम्सुल वो शख्स हैं, जिन्होंने मुझे मेरे अंदर के अभिनेता से परिचय कराया। जिन्होंने मुझे मार्क्स, लेनिन और महात्मा गांधी के दर्शन से अवगत कराया।
उनके साथ जुड़कर मैंने तीन साल निशांत नाट्य मंच के साथ नुक्कड़-नाटक करते हुए गुजारे, लेकिन मेरा सपना नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा तक पहुंचना था। तीन साल निशांत नाट्य मंच के साथ स्ट्रीट थिएटर करने के बाद मैंने एनएसडी जाने के लिए अपनी राहें अलग कर लीं।

साल 1986 की बात थी, जब मैंने पहली बार एनएसडी के लिए एग्जाम दिया, लेकिन मैं लिखित परीक्षा पास नहीं कर पाया। मेरे लिए वो रिजल्ट दुनिया उजड़ने जैसी थी। मैं फेल हो गया था और ये दिल दहलाने वाला अनुभव था क्योंकि मेरे दिमाग में आगे की योजना नहीं थी।
मैंने एक महीने तक खुद को कमरे में बंद कर लिया। मेरे मन में अजीबोगरीब विचार आते थे। इनमें से एक विचार खुदकुशी का भी था। फिर दोस्तों ने संभाला और आगे बढ़ने में मदद की।
मैंने एनएसडी में एंट्री करने के लिए दो ट्राई और किया, लेकिन उसमें भी असफल रहा, लेकिन दूसरे-तीसरे रिजल्ट से मैं उतना प्रभावित नहीं हुआ क्योंकि मैंने खुद को वर्कशॉप, छऊ नृत्य सीखने में झोंक दिया था। मैं अलग-अलग ग्रुप के साथ नाटक कर रहा था।
लगातार तीन बार नाकाम होने के बाद मुझे बैरी जॉन के यहां अपना नया ठिकाना मिला। मुझे बैरी से पहली बार रघुवीर यादव ने मिलवाया था। उस वक्त रघुवीर यादव थिएटर का बड़ा नाम थे। बैरी ने मुझे बहुत कम समय में रंगमंच की बारीकियां सिखा दीं और दुनिया दिखा दी।
मैंने रघुवीर यादव के साथ ‘बगदाद का गुलाम’ नाटक में काम किया। इस प्ले की धूम रही। रघुवीर यादव इसमें मुख्य भूमिका में थे। उनके बाद मैं ही था जिसके किरदार की सबसे ज्यादा बात हुई। उस वक्त के कई आलोचकों ने ये तक कह दिया था कि रघुवीर यादव के बाद यह रोल दिल्ली रंगमंच पर कोई कर सकता है तो वो ये लड़का है।
स्टेट्समैन अखबार ने मेरे अभिनय को रघुवीर यादव की टक्कर का बताया। मेरा काम और लगन बैरी को इतना पसंद आया कि उन्होंने मुझे 1200 रुपए प्रति माह के वेतन पर थिएटर एक्शन ग्रुप असिस्टेंट के रूप में नौकरी दे दी।

थिएटर के दिनों में मनोज बाजपेयी।
नेटुआ ने मुझे रातों-रात रंगमंच का सितारा बना दिया
साल 1989 में मैं एनके शर्मा जी एक्ट वन थिएटर से जुड़ा। उस समय हंस पत्रिका में रतन वर्मा की कहानी ‘नेटुआ’ प्रकाशित हुई थी। एनके शर्मा उस वक्त प्ले के लिए नाटक ढूंढ रहे थे। मैं उनके पास ‘नेटुआ’ कहानी लेकर गया। सबने उसे पढ़ा और उस पर नाटक बनाने के लिए सहमत हो गए।
मैं इसमें एक नाचने वाले की भूमिका में था। इस प्ले के लिए मैं 18-18 घंटे रिहर्सल करता था। मैंने इस कहानी में लौंडा डांस करने के लिए अपनी पूरी बॉडी लैंग्वेज बदली। मैंने बिरजू महाराज के शिष्य मधुकर आनंद से कथक सीखा।
मैं लहंगा-ब्लाउज पहनकर म्यूजिक के साथ नाचने की रिहर्सल करता था। मैं घुंघरू बांधकर नाचता था। इस दौरान मेरा एंकल (टखना) पूरी तरह जख्मी हो चुका था। फिर भी मैं वहां कपड़ा लपेटकर घुंघरू बांधता था, लेकिन मुझे मेरी मेहनत का फल भी मिला।
श्रीराम सेंटर में ‘नेटुआ’ का पहला मंचन हुआ और ऐसा जबरदस्त हिट हुआ कि मैं रातों-रात रंगमंच का सितारा बन गया।

नेटुआ प्ले के दौरान लाल घाघरे में मनोज बाजपेयी।
दूसरे-तीसरे शो के दौरान एक दिलचस्प किस्सा हुआ। मैं श्रीराम सेंटर में ‘नेटुआ’ परफॉर्म कर रहा था। तभी बिजली गुल हो गई। लोगों ने मेरा नाच रुकने नहीं दिया। मैं अंधेरे में नाचता रहा क्योंकि ऑडियंस चिल्लाती रही कि आप नाचते रहिए, हम लाइट लेकर आ रहे हैं। उनमें से कोई जाकर पास के मार्केट से मोमबत्ती ले आया और पूरे थिएटर में मोमबत्ती जलाई गई और मैं उसकी रोशनी में नाचता रहा। ऐसा विहंगम दृश्य थिएटर में कभी नहीं हुआ था।
‘नेटुआ’ का ऐसा क्रेज बना कि अंग्रेजी प्ले की ऑडियंस हिंदी प्ले देखने आने लगी थी। ये मेरे जीवन का बहुत ही ज्यादा सफल नाटक और किरदार रहा है। मैंने इससे ज्यादा सफल किरदार अपने जीवन में आज तक नहीं निभाया है।
‘बैंडिट क्वीन’ पहली फिल्म थी, लेकिन पहचान नहीं मिली
मैं और तिग्मांशु धूलिया थिएटर के दिनों से एक-दूसरे को जानते थे। साल 1992 की एक शाम वो मेरे पास आए और कहा कि शेखर कपूर मुझसे मिलना चाहते हैं। शेखर कपूर उस वक्त ‘बैंडिट क्वीन’ बनाने वाले थे और तिग्मांशु धूलिया उस फिल्म में कास्टिंग डायरेक्टर थे। उन्होंने बताया कि शेखर को मेरी फोटो पसंद आई थी और वो मुझे डाकू विक्रम मल्लाह के रोल में लेना चाहते थे। हालांकि वो रोल बाद में थिएटर एक्टर निर्मल पांडे को मिल गया और मैं खाली हाथ रह गया।
उस बात को भूल मैं अपनी दुनिया में बिजी हो गया। फिल्म में डाकू मान सिंह के रोल के लिए शेखर कपूर नसीरुद्दीन शाह को लेना चाहते थे, लेकिन डेट्स की वजह से उन्होंने मना कर दिया था। ऐसे में घूम-फिरकर ये रोल मेरे पास आया। मैंने अस्सी हजार रुपए में इस रोल का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया।

ये फिल्म बनी और कांस फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई और भी कई फिल्म फेस्टिवल का हिस्सा बनी। हर जगह फिल्म को खूब सराहना मिली। ‘बैंडिट क्वीन’ से सीमा विश्वास, निर्मल पांडे, सौरभ शुक्ला को जबरदस्त पहचान मिली, लेकिन मैं हाशिए पर ही रहा। इस फिल्म की शूटिंग के बाद मैं मुंबई शिफ्ट हो गया था। मुझे क्या पता था कि अभी तो संघर्ष की शुरुआत होनी है।
लंबाई, वजन और व्यक्तित्व की वजह से रिजेक्ट हुआ
मैं मुंबई गया और थिएटर के दिनों के दोस्तों के साथ रहने लगा। अनुभव सिन्हा जो मेरे थिएटर के दिनों के दोस्त थे, वो उस वक्त नामी डायरेक्टर पंकज पराशर के सहायक थे। उन दिनों पंकज ‘अब आएगा मजा’ नाम से एक धारावाहिक बना रहे थे। उन्हें नसीरुद्दीन शाह की टक्कर का कोई एक्टर चाहिए था। अनुभव अपने पैसे से मेरे बाल कटवाकर, स्पा, फेशियल करा कर उनके सामने ले गए। पंकज ने मुझे देखा और ओके कह दिया।
मैं पायलट एपिसोड शूट करने पहुंचा, लेकिन पहले दिन ही समझ आ गया कि उन्हें मेरा काम पसंद नहीं आ रहा था। उन्होंने मुझे धारावाहिक से ये कहकर निकाल दिया कि मुझे एक्टिंग नहीं आती। काम से निकाले जाने के बाद मैं प्रकाश झा से मिलने पहुंचा।
दरअसल, ‘बैंडिट क्वीन’ की शूटिंग के दौरान मैं उनसे दिल्ली में मिला था। उस वक्त उन्होंने अपनी फिल्म ‘मृत्युदंड’ में मुझे बड़ा रोल ऑफर किया था। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया। उनके व्यवहार से मेरा दिल टूट गया था।
आगे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। मैं काम के लिए दिन भर डायरेक्टर को फोन करता, उनके असिस्टेंट को फोटो देता था, लेकिन वो मेरा पोर्टफोलियो कचरे के डिब्बे में फेंक देते। एक बार तो एक ही दिन में तीन जगह से रिजेक्ट हुआ।
बड़ी मुश्किल से एक सीरियल में काम मिला। शूटिंग के पहले दिन जब मैंने अपना पहला शॉट दिया तो कैमरे के पीछे खड़े सारे लोग गायब हो गए। कमरे में मैं अकेले था। थोड़ी देर बाद एक असिस्टेंट डायरेक्टर आया और कहा कि कॉस्ट्यूम रूम में जाकर कपड़े बदल लीजिए, मैडम को आपका काम पसंद नहीं आया।
मेरे लिए वो बात बहुत अजीब और शर्मसार करने वाली थी। मैं दूसरी जगह पहुंचा, जहां मुझे दो दिन बाद डॉक्यू ड्रामा शूट करना था, लेकिन जब वहां पहुंचा तो मैंने देखा मेरी जगह कोई और एक्टर शूट कर रहा था।
मुझे कहा गया कि दूसरा एक्टर पसंद आ गया तो उसे ले लिया। मजे की बात ये थी कि शूटिंग दो दिन बाद होनी थी और किसी ने मुझे बताना जरूरी नहीं समझा।
मुझे हर मोड़ पर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा था। मुझे अपनी लंबाई, वजन, सेक्स अपील की कमी और व्यक्तित्व में करिश्मा न होने जैसे ताने सुनने पड़ रहे थे। मेरे थिएटर के अनुभव की यहां कोई कीमत नहीं थी।
ऐसी तंगी कि पेट भरना मुश्किल हो गया था
मैं दिल्ली रंगमंच का सितारा था और मुंबई में मुझे छोटे-छोटे काम के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा था। ‘बैंडिट क्वीन’ भारत में रिलीज नहीं हो पा रही थी इसलिए मेरे काम से ज्यादा लोग वाकिफ नहीं थे। ऐसा संघर्ष देखा कि खाने को पैसे नहीं थे। मुझे याद है मैं सुबह ब्रश करके निकलता तो सोचता नाश्ता कहां करूंगा। अमूमन नाश्ता नहीं होता था। कभी किसी फिल्म के सेट पर पहुंचा और वहां कोई स्पॉट बॉय या प्रोडक्शन का बंदा जान-पहचान का मिल जाता तो जरूर कहता कि खाना खाकर जाना।
उस वक्त अशोक मेहता बहुत बड़े कैमरामैन थे। ‘बैंडिट क्वीन’ में साथ रहे तो मैं उनकी फिल्म के सेट पर चला जाता था। वो जानते थे कि भूखे आया है तो खाना खिला देते थे। कई बार तो ऐसी नौबत आई कि खाने के वक्त मैं दोस्तों के घर चला जाता ताकि वो खाना खिला दें। कितनी बार पैदल चलकर घर से गोरेगांव जाता था क्योंकि बस को देने के लिए भी पैसे नहीं होते थे।
ऐसा लगता था कि गलत जगह पर आ गया हूं। कई बार बोरिया बिस्तर बांधा, मगर कभी दोस्तों की सलाह पर तो कभी किसी निर्देशक के आश्वासन पर रुकता रहा। एक-दो बार दिल्ली लौटा तो भाई-बहन और दोस्तों ने जबरदस्ती ट्रेन में बैठाकर मुंबई रवाना कर दिया। 1993-1994 के दो साल बहुत त्रासदी में गुजरे। न मुझे शोहरत मिल पाई और न मैं जिंदगी के रिश्ते संभाल पाया।
स्ट्रगल की वजह से पहली शादी नाकाम हुई
दिल्ली में एक्ट वन थिएटर के दौरान मैं दो बार इश्क में पड़ा और दोनों में मुझे नाकामी हासिल हुई। पहले प्यार में सपना जल्दी टूटा जबकि दूसरी बार प्रेम का हश्र इससे भी बुरा हुआ। मैं एक खराब शादी से गुजरा हूं। मुझे अपनी थिएटर की साथी दिव्या से प्यार हो गया था। वो लाजपत नगर में रहती थी और एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखती थी।
हमारे कोर्टशिप के दिन सुनहरे थे। हमने शादी की, लेकिन जैसे ही मैं मुंबई में शिफ्ट हुआ हमारा रिश्ता पटरी से उतर गया। मैं साथ रहने की कीमत पर अपने सपनों को पूरा करना चाहता था। आखिर में, उसने फैसला लिया और हमारे रास्ते अलग हो गए।
दिव्या से अलग होना मेरे लिए सदमा जैसा था। मैं कभी खुद को दोषी मानता तो कभी लगता कि मेरे साथ धोखा हुआ है। मुझे बार-बार ये महसूस होता था कि मैंने दिव्या से कुछ नहीं छिपाया था, फिर ये हालात क्यों पैदा हुए? मैंने दिव्या से शादी अपने मां-पिताजी को बिना बताए की थी।
मैं खुद को उनका भी दोषी मान रहा था। तलाक की वजह से मैं और बदतर स्थिति में पहुंच गया। मैं मुंबई छोड़कर वापस दिल्ली चला गया। हालत ऐसी थी कि रात में एक तरफ मेरी छोटी बहन पूनम सोती थी और दूसरी तरफ मेरा भाई हाथ पकड़कर सोता था। कई बार तो ऐसा होता था कि मैं डिप्रेशन में दीवार पर सिर पटकने लगा था।

मनोज ने साल 2004 में दूसरी शादी ‘करीब’ फेम एक्ट्रेस शबाना रज़ा से की। दोनों की एक बेटी है।
महेश भट्ट की वजह से पेट पालने का जुगाड़ हुआ
जब मैं हर तरफ से हताश और निराश हो चुका था, उस वक्त महेश भट्ट ने मेरी काबिलियत पर यकीन किया। वो दूरदर्शन के लिए ‘स्वाभिमान’ धारावाहिक डायरेक्ट कर रहे थे। पहले तो मैंने कम पैसों की वजह से काम करने से मना कर दिया, लेकिन अपने एक दोस्त के समझाने पर राजी हुआ।
शुरू में मुझे सिर्फ 10 एपिसोड में काम करना था। मेरे एक सीन से महेश भट्ट इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे मिलने बुलाया। पहले मुझे यकीन नहीं हुआ कि इतना बड़ा डायरेक्टर मुझसे मिलना चाहता है। मैं डरते-डरते फिल्मिस्तान स्टूडियो पहुंचा। वहां पर वो शाहरुख के साथ ‘चाहत’ फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। जब मैं सेट पर पहुंचा तो महेश भट्ट ने मुझे खड़े होकर गले से लगाया।
एक हताश अभिनेता को सफल निर्देशक महेश भट्ट ने गले लगा लिया। उस पल के एहसास को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। वो उठे और सबसे कहा कि ये आदमी बहुत बड़ा एक्टर बनेगा। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारा चेहरा देखकर लग रहा है कि तुम ये शहर छोड़ने वाले हो, लेकिन ये शहर मत छोड़ना।
ये शहर तुम्हें बहुत कुछ देगा। मैंने ‘स्वाभिमान’ के 250 एपिसोड में काम किया। इस धारावाहिक से मुझे थोड़ी पहचान मिली और कम से कम इतने पैसे मिले कि लंच और डिनर की चिंता खत्म हो गई थी, लेकिन सफल एक्टर बनने का सपना अभी भी अधूरा था।

मनोज बाजपेयी को चार बार नेशनल अवॉर्ड मिल चुका है। पहली बार उन्हें फिल्म ‘सत्या’ के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर, ‘पिंजर’ के लिए स्पेशल ज्यूरी अवॉर्ड, ‘भोंसले’ के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर का नेशनल अवॉर्ड मिला। ‘गुलमोहर’ के लिए उन्हें स्पेशल मेंशन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
‘सत्या’ के लिए रामगोपाल वर्मा मुझे 5 साल से ढूंढ रहे थे
1997 में मैं रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘दौड़’ में एक छोटे रोल के लिए ऑडिशन देने पहुंचा। मुझे पता चला कि उस रोल के लिए 35 हजार मिलेंगे तो मैंने सोचा चलो कुछ दिन का किराया निकल आएगा। ऑडिशन के दौरान, जब मेरा नंबर आया, तब रामू ने मुझसे पूछा पहले क्या किया है? मैंने बताया कि ‘बैंडिट क्वीन’ से शुरुआत की है। उन्होंने मुझसे कहा कि मैंने दो बार देखी है, लेकिन तुम मुझे कहीं नहीं दिखे?
मैंने बताया कि मैं डाकू मान सिंह के रोल में था। वो एकदम से उठे और कहां कि तुम सच कह रहे हो? मैंने कहा- हां। रामू ने फिर से पूछा कि क्या तुम वास्तव में मान सिंह थे। मैं तुम्हें पांच साल से ढूंढ रहा था। कोई तुम्हारा नाम और नंबर नहीं दे रहा था। तुम ये रोल मत करो। मैं तुम्हें अगली फिल्म में लीड रोल दूंगा।
मुझे उनकी बातें सुनकर अच्छा लग रहा था, लेकिन वादों से डर लग रहा था। मैंने कहा, नहीं सर मैं ‘दौड़’ फिल्म करना चाहूंगा। रामू ने कहा- तुम मुझ पर विश्वास नहीं कर रहे? फिर उन्होंने कहा कि मैं एक बड़ी तेलुगु फिल्म कर रहा हूं तो अब उसे रद्द कर रहा हूं। ‘दौड़’ के बाद तुम्हारे साथ फिल्म बनाऊंगा। इस तरह ‘सत्या’ फिल्म मुझे मिली।

‘सत्या’ का फेमस डायलॉग मुंबई का किंग कौन? स्क्रिप्ट का हिस्सा नहीं था। मनोज ने इसे आखिरी मौके पर इम्प्रोवाइज किया था।
‘सत्या’ जैसी ब्लॉकबस्टर के बाद भी बेरोजगार रहा
इस फिल्म ने मुझ वो मुकाम दिलाया, जो मैं हासिल करना चाहता था। मेरी तरफ लोग मुड़कर नहीं देखते थे, लेकिन ‘सत्या’ ने सारी चीजें बदल दीं। मुझे सड़क पर चलने में दिक्कत होने लगी। ऑटो में बैठता तो लोग ‘भीखू-भीखू’ चिल्लाते। ‘सत्या’ की सफलता ने मुझे रातोंरात स्टार बना दिया। मुझे इस फिल्म के लिए बेस्ट एक्टर (क्रिटिक) का अवॉर्ड मिला। बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का जी सिने अवॉर्ड मिला।
हालांकि मैं ‘सत्या’ जैसी कल्ट, ब्लॉकबस्टर फिल्म करने के बाद भी घर पर बैठा रहा। मेरे पास लंबे समय तक कोई काम नहीं था। इसके बाद मैंने ‘शूल’, ‘कौन’, ‘अक्स’ जैसी फिल्में कीं। मेरी परफॉर्मेंस को तारीफ भी मिली, लेकिन काम नहीं मिला। मुझे काम मांगना पड़ा।
मुझे याद है, उन दिनों मैं हर सुबह, योग करके, नहाकर, पूजा करता था। फिर नए कपड़े पहनकर परफ्यूम लगाकर सोफे पर बैठता था। उसके बाद मैं लोगों को फोन करके काम मांगता था। मेरे लिए वो ऑफिस जाने जैसा था। मेरे लिए मेरा सोफा ही मेरा ऑफिस था, जहां बैठकर मैं अपने लिए लोगों से काम मांगता था।
लाइफ में बहुत उतार-चढ़ाव आया। 2010-2020 का दौर मेरे करियर के लिए गोल्डन पीरियड साबित हुआ। न सिर्फ मेरे काम को सराहा जा रहा था बल्कि मेरी फिल्में कॉमर्शियली सुपरहिट हो रही थीं।
संघर्ष के दिनों में जिन प्रकाश झा ने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया था, उनके साथ मेरी फिल्म ‘राजनीति’ आई और मेरे करियर पर लगी साढ़े साती खत्म हुई। इसके बाद की कहानी तो फिर आप सबके सामने है।

पिछले हफ्ते की सक्सेस स्टोरी पढ़िए…
कद-काठी की वजह से हीरो बनाने से इनकार:करिश्मा कपूर के चक्कर में खूब पिटे; निरहुआ के गायक, हीरो और नेता बनने की कहानी

कभी ढंग के खाने के लिए तरसे दिनेश लाल यादव सालों के संघर्ष के बाद अब भोजपुरी इंडस्ट्री का बड़ा नाम हैं। दो दशक के लंबे करियर में उन्होंने भोजपुरी इंडस्ट्री से हिंदी इंडस्ट्री होते हुए ओटीटी तक का सफर तय किया है, जो बदस्तूर जारी है। पूरी खबर पढ़ें…