तंत्र की रात, अमावस्या का अंधेरा और काली पूजा… दिवाली का वो रहस्य जिससे अनजान हैं हम – diwali mahanisha puja kali worship eastern india cultural significance ntcpvp

तंत्र की रात, अमावस्या का अंधेरा और काली पूजा… दिवाली का वो रहस्य जिससे अनजान हैं हम – diwali mahanisha puja kali worship eastern india cultural significance ntcpvp


दीपावली की रात जब देशभर के घर-मंदिर, चौराहे और सारे रास्ते दीपों से जगमगा उठतें हैं, तब पूर्वी भारत की धरती पर इस महापर्व का एक अलग ही स्वरूप दिखाई देता है. अक्सर आपने सुना होगा कि दीपावली के दिन अमावस्या का निशीथ काल में होना जरूरी है और इस रात महानिशा पूजा होती है. सवाल उठता है कि निशीथ काल और महानिशा पूजा क्या है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर भारत की पूर्वी धरती से सबसे सटीक रूप में मिलता है, जहां दिवाली की रात देवी लक्ष्मी की पूजा नहीं बल्कि माता महाकाली की पूजा के दीप जल रहे होते हैं. 

दिवाली की रात होती है महानिशा पूजा
देवी महाकाली के घोर काल स्वरूप के कारण उन्हें निशामग्नि भी कहा जाता है और संक्षेप में उनका यही नाम महानिशा बन जाता है. असल में दिवाली की काली रात खुद महाकाली का ही स्वरूप है और जब हम यह जान-समझ पाते हैं तो पता चलता है कि दीपावली असल में लक्ष्मी पूजा का नहीं काली पूजा का ही दिन है. महालक्ष्मी इसी तंत्र काली का ही सात्विक स्वरूप है, जो हमें ऐश्वर्य प्रदान करता है, जिसे वेदों और शास्त्रों में श्री कहा गया है. देवी महाकाली जिस श्री का वरदान देती हैं, वही श्री महालक्ष्मी हैं. 

मां काली की ही सत्व शक्ति हैं महालक्ष्मी
इसीलिए शाक्त परंपरा को मानने वाले पूर्वी राज्य दिवाली की रात काली पूजा करते हैं. यह वही रात है जिसे बंगाल, बिहार, झारखंड, असम और ओडिशा में महानिशा पूजा कहा जाता है. जहां उत्तर भारत में मां लक्ष्मी का पूजन धन और समृद्धि का प्रतीक है, वहीं मां काली की आराधना भय, अंधकार और अज्ञान के अंत की साधना मानी जाती है. रात के गहन अंधकार में दीयों की झिलमिल रोशनी और मां काली के रौद्र सौंदर्य के बीच, यह पर्व हमें याद दिलाता है कि प्रकाश तभी पूर्ण होता है जब हम अपने भीतर के अंधकार को पहचानकर उसे मिटाने का साहस जुटाते हैं.

Kali Puja Diwali
कोलकाता में पंडाल में काली मां की प्रतिमा ले जाते श्रद्धालु (Photo- PTI)

काली उपासना का लोकप्रिय स्वरूप
काली उपासना का उल्लेख सं स्कृत के अनेक ग्रंथों में मिलता है, लेकिन इसका लोकप्रिय रूप मध्यकाल के उत्तरार्ध में उभरा. बंगाल के भक्ति साहित्य ‘मंगलकाव्य परंपरा’ में देवी काली की भक्ति को लोकजीवन से जोड़ा गया. सत्रहवीं शताब्दी के ‘कालिकामंगलकाव्य’ में पहली बार काली पूजा के विधि-विधान और आराधना का विस्तृत वर्णन मिलता है. अठारहवीं शताब्दी में नदिया के राजा कृष्णचंद्र ने इस पूजा को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से बड़ा आयाम दिया. इसी काल में काली पूजा का सार्वजनिक स्वरूप बंगाल, ओडिशा और असम के अनेक भागों में फैल गया. उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते यह परंपरा श्रीरामकृष्ण परमहंस और बामाखेपा जैसे संतों की साधना से जुड़कर भक्ति और तंत्र, दोनों ही मार्गों के बीच पुल की तरह स्थापित हुई. 

अंधकार के विनाश की देवी
दीपावली की अमावस्या को जब उत्तर भारत में मां लक्ष्मी का पूजन धन, सौभाग्य और वैभव के लिए किया जाता है, उसी रात बंगाल और अंगप्रदेश की भूमि पर मां काली का आवाहन होता है. यह समान रात दो भिन्न लेकिन पूरक भावनाओं की प्रतीक है, लक्ष्मी प्रकाश और समृद्धि का प्रतिनिधित्व करती हैं, जबकि काली अंधकार के विनाश और आत्ममुक्ति की देवी हैं.

काली पूजा की यह रात्रि केवल बाहरी दीपों की नहीं, बल्कि आत्मा के दीप जलाने की भी साधना है. यह पर्व हमें सिखाता है कि समृद्धि तब ही सार्थक है जब वह भय, अन्याय और अंधकार से मुक्त हो. इसी कारण बंगाल में दीपावली की रात भय और भक्ति के संगम के रूप में मनाई जाती है, जहाँ हर दीप, हर गुड़हल का फूल और हर मंत्र माँ काली के चरणों में समर्पित होता है.

कैसे होती है महानिशा पूजा
काली पूजा की रात यानी कार्तिक अमावस्या को देवी की साधना का सबसे शक्तिशाली समय माना गया है. इस दिन घरों और पंडालों में मिट्टी की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. देवी को लाल वस्त्र पहनाए जाते हैं, लाल गुड़हल के फूल, चावल, दाल, मिठाई और फल अर्पित किए जाते हैं. देवी काली का यह लाल रंग रक्त नहीं, बल्कि शक्ति और जीवन ऊर्जा का प्रतीक है. तांत्रिक परंपरा के अनुयायी इस रात पूरी रात्रि मंत्रजप, ध्यान और साधना करते हैं. माना जाता है कि मां काली खुद ही अमावस्या की इस गहन रात्रि में प्रकट होती हैं और अपने साधक को भयमुक्त करती हैं. वहीं, ब्राह्मण परंपरा के अनुयायी इसे शांत भक्ति पूजा के रूप में मनाते हैं, जिसमें पशुबलि नहीं दी जाती, बल्कि फल, खीर, गुड़ और मिठाई अर्पित की जाती है.

जब अंधेरी रात में खिल उठता है श्यामा संगीत
पश्चिम बंगाल की धरती पर काली पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सांस्कृतिक उत्सव का रूप ले चुकी है. कोलकाता, बारासात, नैहाटी, तामलुक, रानीगंज, सिलीगुड़ी और कूचबिहार के इलाके इन दिनों सैकड़ों पंडालों और कलात्मक मूर्तियों से सजे रहते हैं. रातभर शहर में श्यामा संगीत, नाट्य मंचन और आतिशबाजी का सिलसिला चलता रहता है. कालीघाट मंदिर में इस दिन देवी की पूजा लक्ष्मी स्वरूप में की जाती है, जबकि दक्षिणेश्वर मंदिर में मां के रौद्र और करुण, दोनों रूपों की आराधना होती है.

बिहार का अंग क्षेत्र, विशेषकर भागलपुर, काली पूजा के रंग में पूरी तरह डूब जाता है. यहां यह पर्व न केवल पूजा, बल्कि जनसांस्कृतिक उत्सव का प्रतीक है.लकाली पूजा केवल तांत्रिक अनुष्ठान या भक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि अंधकार से मंक्ति की यात्रा है. इस रात जब दीपक जलते हैं, तो वे केवल घरों को नहीं, आत्मा को भी प्रकाशित करते हैं. मां काली का यह पर्व हमें याद दिलाता है कि हर विनाश में नया आरंभ छिपा है—और हर अमावस्या के भीतर एक दीवाली प्रतीक्षा कर रही है.

mata kali Diwali
अगरतला में माता महाकाली का शृंगार करता श्रद्धालु (Photo- PTI)

भगवान विष्णु ने की थी महानिशा पूजा
काली पूजा का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और तंत्र शास्त्रों में “महानिशा पूजा” के रूप में मिलता है. कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु ने देवताओं और असुरों के बीच संतुलन साधने के लिए देवी को “महानिशा” काल में जागृत किया, तब पहली बार मां काली की आराधना की गई. इसी कारण यह पूजा रात्रि के अंधकार में की जाती है, जब संसार विश्राम में होता है और साधक अपने भीतर की शक्तियों से संवाद करता है. बंगाल में 16वीं शताब्दी के आसपास यह परंपरा और संगठित रूप में दिखाई देती है, जब नवद्वीप और कलकत्ता क्षेत्र के तांत्रिक संप्रदायों ने इसे सार्वजनिक रूप दिया.

दिवाली की प्राचीन परंपरा है महानिशा पूजा
धीरे-धीरे यह पूजा दीपावली से जुड़ गई. कहा जाता है कि जिस रात अयोध्या में श्रीराम के लौटने पर दीप जलाए गए, उसी रात बंगाल के साधक मां काली की आराधना कर रहे थे. एक ओर लक्ष्मी का स्वागत हुआ, तो दूसरी ओर काली का आह्वान यही इस पर्व का सांस्कृतिक द्वैत है. जहां लक्ष्मी पूजा धन, सौंदर्य और समृद्धि का प्रतीक है, वहीं काली पूजा शक्ति, साहस और आत्मबोध का. दोनों मिलकर भारतीय जीवन-दर्शन की यह गूढ़ शिक्षा देते हैं कि प्रकाश का कोई अर्थ नहीं, यदि हम अपने भीतर के अंधकार को स्वीकार न करें.

काली पूजा की रात को साधक अपने भीतर की भय, वासना और अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति पाने का संकल्प लेते हैं. यह पूजा सामान्य आरती और भोग की नहीं, बल्कि साधना और आत्म-परिवर्तन की प्रक्रिया है. मध्यरात्रि से पहले देवी की मूर्ति स्थापित की जाती है. मां का रूप रक्तवर्ण, चार भुजाएं, जिह्वा बाहर निकली, एक हाथ में खड्ग और दूसरे में असुर का कटा हुआ मस्तक. यह रौद्रता किसी हिंसा की प्रतीक नहीं, बल्कि यह बताती है कि अहंकार का वध ही मुक्ति का पहला चरण है.

बंगाल और असम के तांत्रिक परंपराओं में इस पूजा को महानिशा साधना कहा गया है. इसमें पंचतत्वों  अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी के माध्यम से मन और शरीर के संतुलन की साधना की जाती है. कुछ साधक तंत्र-मंत्र के उच्चारण के साथ ध्यानस्थ होकर देवी से एकात्म होने का प्रयास करते हैं. वहीं सामान्य भक्त दीप, लाल फूल, काली चने की दाल, नारियल, मिठाई और पशु-बलि के स्थान पर अब कद्दू की प्रतीकात्मक बलि चढ़ाते हैं.

दुर्गा पूजा के बाद सबसे बड़ा लोकपर्व है काली पूजा
काली पूजा सिर्फ तंत्र और साधना का पर्व नहीं है, यह पूर्वी भारत की लोक-संस्कृति की धड़कन भी है. हर बस्ती में देवी मंडप बनते हैं, कहीं पारंपरिक प्रतिमा, तो कहीं आधुनिक भव्य पंडाल.
इन पंडालों में सिर्फ पूजा नहीं होती, बल्कि कला, संगीत और लोकगीतों का संगम भी होता है. ढाक (ढोल) की गूंज, शंखध्वनि और देवी गीतों की स्वर लहरियां वातावरण को अलौकिक बना देती हैं. महिलाएं लाल-पांरपरिक साड़ियों में सिंदूर खेलती हैं, पुरुष ढाक बजाते हुए मां की आरती में लीन रहते हैं. यह सब मिलकर एक ऐसे सामुदायिक उत्सव का रूप ले लेता है जो भय और भक्ति, कला और अध्यात्म, परंपरा और आधुनिकता, सबको एक सूत्र में बांध देता है.

काली पूजा की इस सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में ही बंगाल की आत्मा बसती है — वह आत्मा जो भय में भी सौंदर्य खोज लेती है और विनाश में भी सृजन का अर्थ देखती है. इस तरह, मां लक्ष्मी और मां काली, दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति के उस अद्वितीय दर्शन को साकार करती हैं, कि प्रकाश तब ही पवित्र होता है, जब वह अंधकार को स्वीकार कर उसे ज्ञान में बदल दे.

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