Diwali 2025: देशभर में दिवाली का पर्व बहुत ही धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. इस पर्व के दिन लोग अपने घरों में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश का पूजन करते हैं. वहीं, भारत का ऐसा भी गांव है, जहां दीपावली के दिन मातम मनाया जाता है. ये गांव है कर्नाटक का मेलकोटे (मेलुकोटे). यह गांव इस दिन अपने पूर्वजों के मृत्यु का मातम और दुख मनाता है. तो चलिए जानते हैं कर्नाटक के मेलकोटे (मेलुकोटे) गांव की 235 साल पुरानी इस प्रथा और परंपरा के बारे में.
प्रथा से है टीपू सुल्तान का संबंध
कर्नाटक का मेलकोटे (मेलुकोटे) गांव बेंगलुरु से 100 किमी. की दूरी पर स्थित है. कहा जाता है कि दिवाली का पर्व अयंगर ब्राह्मण समुदाय के लोग नहीं मनाते हैं. मेलकोट गांव के लोगों के मुताबिक, दिवाली के दिन टीपू सुल्तान ने 700 ब्राह्मणों को मौत के घाट उतरवा दिया था. वह सभी ब्राह्मण अयंगर समुदाय वालों के पूर्वज थे. गांव वालों के मुताबिक, टीपू सुल्तान ने अपनी किसी निजी दुश्मनी के कारण उन ब्राह्मणों की मृत्यु करवा दी थी. इसी वजह से इस गांव के लोग टीपू सुल्तान से नफरत भी करते हैं. इसी वजह से इस गांव के लोग दीपावाली को ‘काली दिवाली’ के रूप में मनाते हैं.
क्यों टीपू सुल्तान ने ब्राह्मणों को उतारा था मौत के घाट?
इतिहासकारों के मुताबिक, मंड्यम अयंगर समुदाय, जो वैष्णव ब्राह्मण परंपरा से जुड़ा है, आज भी दिवाली के दिन उत्सव नहीं मनाता. इसके पीछे की वजह एक ऐसी ऐतिहासिक घटना जुड़ी है, जिसने पूरे समुदाय की स्मृतियों पर गहरा घाव छोड़ दिया. कहा जाता है कि हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान के शासनकाल में ‘लक्ष्मी अम्मा’ नामक एक महारानी नजरबंद थीं. उन्हें प्रतिदिन केवल एक घंटे के लिए मंदिर जाकर पूजा की अनुमति थी. उसी पूजा में वे गुप्त रूप से संदेश छिपाकर मद्रास और पुणे भेजती थीं. इन संदेशों को पहुंचाने का कार्य दो लोग करते थे- तिरुमल राव और नारायण राव, जो मंड्यम अयंगर समुदाय से थे. जब यह बात टीपू सुल्तान को ज्ञात हुई, तो उसने दोनों को पकड़ने की कोशिश की, पर वे हर बार बच निकले.
कहते हैं कि इसी क्रोध में टीपू सुल्तान ने, दिवाली से एक दिन पहले मंड्यम अयंगर समुदाय के लगभग 700 पुरुष, महिलाएं और बच्चों को एक ‘मित्र भोज’ के बहाने बुलाया. जैसे ही लोग भोजन करने बैठे, मंदिर के द्वार बंद कर दिए गए और अंदर हाथियों को छोड़ दिया गया. वहां उपस्थित लगभग सभी लोग मारे गए. इस घटना के बाद से मंड्यम अयंगर समुदाय ने उस दिन को श्राद्ध और शोक दिवस के रूप में मानना शुरू किया.
—- समाप्त —-