11 मिनट पहले
- कॉपी लिंक

- डायरेक्टर- आदित्य सरपोतदार
- कास्ट- आयुष्मान खुराना, रश्मिका मंदाना, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, परेश रावल, सत्यराज, फैसल मलिक, गीता अग्रवाल
- राइटर- निरेन भट्ट, सुरेश मैथ्यू, अरुण फलारा
- अवधि- 149 मिनट
- रेटिंग- 1.5 स्टार
दिवाली के मौके पर बड़े बजट की हॉरर-कॉमेडी यूनिवर्स में छा जाने की उम्मीद में आई थामा, लेकिन फिल्म ने उस उम्मीद को एक भारी ठोकर दे दी। मैडॉक फिल्म्स की इस नई पेशकश में डर, रोमांस और मिथक का मिश्रण था, पर जब पर्दा उठा तो मिली सिर्फ एक थकी हुई, अस्पष्ट कहानी, जिसमें स्क्रिप्ट, अभिनय और तकनीकी पक्ष सब कहीं क्लैश में लगे। 149 मिनट की इस फिल्म में कहीं रोमांच कहीं मजा नहीं, बस अधूरापन दिखा।
कैसी है फिल्म की कहानी?
मैडॉक यूनिवर्स की नई पेशकश ‘थामा’ एक ऐसे जॉनर को विस्तार देने की कोशिश करती है, जिसमें डर, मिथक और मनोरंजन तीनों का संगम हो। लेकिन यह कोशिश जल्द ही उलझ जाती है। कहानी शुरू होती है जंगल के बीच एक प्राचीन किंवदंती के “बेतालों” से, जो इंसान का खून नहीं पीते। लेकिन उनका राजा यक्षासन (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) इस नियम को तोड़ना चाहता है।
वहीं दूसरी ओर, आलोक गोयल (आयुष्मान खुराना) एक असफल छोटे शहर का पत्रकार है, जो जंगल में भालू के हमले से बचते हुए ताड़का (रश्मिका मंदाना) से टकराता है। ताड़का एक खूबसूरत लेकिन रहस्यमयी बीतालनी। कहानी यहीं से भटकने लगती है। जंगल के दृश्य लंबे, नीरस और बिना रोमांच के लगते हैं।
आलोक और ताड़का का रिश्ता मजबूरी से खिंचता है। जब दोनों शहर लौटते हैं, तो फिल्म कॉमेडी और पारिवारिक ड्रामे में बदल जाती है। परेश रावल पिता के रूप में कुछ शुरुआती मजाक लाते हैं, पर उनका ह्यूमर मजबूरन ठूंसा हुआ लगता है। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, न रोमांस बनता है, न हॉरर का असर टिकता है।

कैसी है एक्टिंग?
आयुष्मान खुराना एक बार फिर आम इंसान की भूमिका में हैं, लेकिन इस बार स्क्रिप्ट उनका साथ नहीं देती। वे कुछ दृश्यों में ईमानदार हैं, पर किरदार की दिशा अस्पष्ट है। रश्मिका मंदाना ने कोशिश तो की है, पर उनका प्रदर्शन ओवरड्रामैटिक और अस्थिर है। दोनों के बीच कैमिस्ट्री बिल्कुल नहीं बनती।
नवाजुद्दीन सिद्दीकी जैसे दमदार कलाकार को भी “चीखते-चिल्लाते खलनायक” में सीमित कर दिया गया है। उनका किरदार न डराता है, न प्रभावित करता है। परेश रावल के डायलॉग जैसे “क्या खाना बारहसिंगा है?” केवल हंसी उड़ाने का मौका देते हैं, असर नहीं छोड़ते।
कैसा है फिल्म का डायरेक्शन?
आदित्य सरपोतदार का निर्देशन इस बार निराश करता है। ‘मुंज्या’ और ‘भेड़िया’ जैसे प्रोजेक्ट्स के बाद उम्मीद थी कि ‘थामा’ हॉरर यूनिवर्स को एक नई दिशा मिलेगी, लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट बिखरा हुआ है। पहला आधा घंटा कमजोर और धीमा है, जबकि दूसरा भाग असंगत और अव्यवस्थित लगता है।
विजुअल इफेक्ट्स का स्तर कई जगह टीवी सीरियल जैसा लगता है। जंगल के सीक्वेंस नकली प्रतीत होते हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक “थामा थामा” के रिफ्रेन पर बार-बार लौटता है, जो अंततः झुंझलाहट पैदा करता है। एक्शन सीक्वेंस बेसुरे और बी-ग्रेड टोन वाले लगते हैं।
कैसा है फिल्म का म्यूजिक? संगीत के मोर्चे पर फिल्म पूरी तरह साधारण है। “तुम मिले” गाना थोड़ा राहत देता है, लेकिन बाकी गाने, खासकर “पॉइजन बेबी” फिल्म की गति रोक देते हैं। बैकग्राउंड स्कोर ज्यादा शोर पैदा करता है, असर नहीं।
कहानी की कमजोर कड़ी
कथानक में कई दिशाएं हैं, हॉरर, रोमांस, मिथक, यूनिवर्स कनेक्शन, लेकिन इनमें से कोई भी परिपक्व नहीं बन पाता। जहां ‘स्त्री’ ने रहस्य से बांधा और ‘भेड़िया’ ने मनोरंजन दिया, वहीं ‘थामा’ न डराती है, न छूती है, बस थकाती है।
फिल्म की खामियां और अच्छाई
फिल्म की अच्छाई ये है कि इसमें कुछ हिस्सों में सिनेमैटिक यूनिवर्स के संकेत रोचक हैं। परेश रावल के दो-तीन संवाद हल्की मुस्कान लाते हैं। खामियों की बात करें तो स्क्रिप्ट भटकी हुई और ओवरलॉन्ग है। अभिनय असंतुलित और कृत्रिम है। विजुअल इफेक्ट्स और संपादन कमजोर है। संगीत और बैकग्राउंड स्कोर परेशान करने वाला है।

फाइनल वर्डिक्टः फिल्म देखें या नहीं?
‘थामा’ को मैडॉक यूनिवर्स की अगली कड़ी के रूप में पेश किया गया, लेकिन यह अपने ही वजन के नीचे दब जाती है। न डर, न मजा, न भावना, बस ऊब और भ्रम। दिवाली पर इसे देखकर शायद आप कहें, “ये हॉरर नहीं, हंसी का बुरा सपना था।”