आज के दौर में गुरु गोलवलकर जन्म लेते तो बन जाते टीवी के ‘गूगल बॉय’ – Madhav Sadashivrao Golwalkar rss life and profile 100 years sangh ntcppl

आज के दौर में गुरु गोलवलकर जन्म लेते तो बन जाते टीवी के ‘गूगल बॉय’ – Madhav Sadashivrao Golwalkar rss life and profile 100 years sangh ntcppl


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ केबी हेडगेवार ने जब अपेक्षाकृत युवा माधव सदाशिवराव गोलवलकर को संघ की कमान सौंपी थी, तो देश भर में तमाम लोग हैरान थे. माधव उन लोगों में शामिल नहीं थे, जो संघ की स्थापना के समय से ही डॉ हेडगवार के साथ थे. ऐसे में आज अगर आप उनके बचपन के किस्से जानेंगे तो मान ही लेंगे कि उनसे बेहतर कोई हो नहीं सकता था. क्या बाइबिल और क्या रामचरित मानस, क्या शेक्सपियर का रचा साहित्य और क्या ‘रामरक्षा स्त्रोत्र’ के श्लोक, उनको बचपन में ऐसे कंठस्थ थे कि उनके ईसाई शिक्षक भी उनके सामने गलत साबित हो जाते थे. ये सही है कि वे आज के दौर में होते तो टीवी चैनल्स के प्रिय ‘गूगल बॉय’ होते.

अपने माता पिता की वो चौथी संतान थे, लेकिन वो अकेले ही जीवित रहे. उनसे बड़ा भाई अमृत जरूर 15 साल की उम्र तक जीवित रहा, लेकिन बाद में वो भी उन्हें अकेला छोड़ गया. डॉ हेडगेवार की तरह उनके पुरखे पुरोहित थे. मूल रूप से कोंकण के ‘गोलवली’ गांव के थे. सो अपना उपनाम ‘पाध्ये’ से बदलकर गोलवलकर कर लिया था. पहले पूरा परिवार पैंठण गया, फिर वहां से एक शाखा नागपुर तो एक रायपुर चली गई, एक पंढरपुर में भी बस गई, लेकिन गांव हमेशा के लिए ‘गोलवलकर’ के तौर पर साथ रहा.   

उनके दादा, पिता नौकरियां करते थे. दादा बालकृष्ण कवर्धा कोर्ट में रीडर थे, दुर्घटना में मौत की वजह से उनके पिता पिता सदाशिवराव के सर पर जल्दी ही पूरे परिवार का बोझ आ गया था. उन्हें सब ‘भाऊजी’ कहा करते थे और उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई को ‘ताई’. मैट्रिक के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी और डाक तार विभाग में नौकरी करने लगे. उसके बाद उनकी सरकारी अध्यापक पद पर नौकरी लगी तो एक दूर गांव (वर्तमान में छत्तीसगढ़ में) नौकरी लगी. उस गांव तक ढंग से सड़क भी नहीं थी. तांगा या बैलगाड़ी ही सहारा थे, रायपुर से भी 80 किमी अंदर होगा. लेकिन इस पूरे परिवार में पढ़ने लिखने को लेकर बड़ी ललक थी.

इसी ललक के चलते माधव के पिता ने 20 साल बाद इंटर की परीक्षा दी, और फिर इसके 7 साल बाद स्नातक किया. ऐसे में माधव पर इन सबका असर पड़ना स्वाभाविक था. छोटे से गांव में उनका परिवार ही दुनियां थी, माधव अकेले बचे तो उनको माता पिता ने लगभग सभी ग्रंथ रामायण, महाभारत से लेकर पंचतंत्र की कहानियों तक से लैस कर दिया. माधव को भी उन सबमें रुचि आने लगी थी. जब वो मिडल स्कूल में थे, तो अक्सर ऐसा होता था कि उनके शिक्षक को क्लास में माधव कोई दूसरी किताब पढ़ते दिखते थे. एक अध्यापक ने उन्हें खड़ा कर दिया और पूछा कि मैंने जो पढाया उसको बताओ, माधव ने खड़े होकर ना केवल वो सब बताया बल्कि आगे का भी बता दिया. अध्यापक हैरान थे कि ये लड़का साथी बच्चों से आगे है ही, अध्यापकों से भी दो कदम आगे चलता है.  वैसे उनके पिता को बचपन से उनकी मेधा दिखने लगी थी, जब माधव 6 साल के थे, पिता ने उन्हें ‘राम रक्षा स्त्रोत’ लाकर दिया.

RSS के सौ साल से जुड़ी इस विशेष सीरीज की हर कहानी 

हालांकि उनकी मां कभी कभी उसके श्लोक सुनाती रहती थीं, सो थोड़ा बहुत याद था. माधव ने पिताजी से कहा कि आप मुझे एक बार इसे पूरा सुना दीजिए, मैं याद कर लूंगा. माधव ने फौरन उन्हें पूरा सुना दिया. सदाशिव हैरान थे कि 6 साल का बच्चा एक बार में 38 कठिन संस्कृत श्लोक सुनकर कैसे सुना सकता है, मन में गदगद भी थे कि बच्चा उन्हीं का है. हैरान तो वो तब भी हुए होंगे जब मिडिल स्कूल में पढते हुए ही माधव ने पूरी रामचरित मानस याद कर ली थी. जबकि उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी, मराठी थी. इस तरह माधव की चर्चा धीरे धीरे होने लगी थी. हालांकि पिता का तबादला हिंदी भाषी क्षेत्रों जैसे दुर्ग, खंडवा, रायपुर आदि में होता रहा तो मराठी के साथ साथ उनकी पकड़ हिंदी पर भी बनने लगी. लेकिन अवधी, संस्कृत और अंग्रेजी पर भी उनकी पकड़ स्कूल के दिनों में ही बन गई थी.

गोलवलकर ने मिडिल स्कूल में ही रामचरित मानस कंठस्थ कर लिया था. (Photo: AI generated)

अंग्रेजी से जुड़ी उनके जीवन की एक घटना बड़ी दिलचस्प है. उनके बड़े भाई अमृत को स्कूल में अंग्रेजी में एक विषय पर बोलना था, लेकिन ऐन वक्त पर अमृत की तबियत खराब हो गई तो स्कूल के अध्यापक परेशान हो गए. तब माधव ने कहा भाई की जगह मैं बोलूंगा. सशंकित शिक्षकों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था क्योंकि कार्यक्रम में स्कूल निरीक्षक आदि अधिकारियों को रहना था. निरीक्षक माधव के सम्बोधन से इतना खुश हुआ कि उसने उन्हें पुरस्कार भी दिया. एक बार एक अंग्रेज निरीक्षक माधव के स्कूल का निरीक्षण करने वाले थे, अचानक माधव की तबियत खराब हो गई और स्कूल से छुट्टी ले ली. अध्यापकों को चिंता हो गई कि निरीक्षक के सवालों के जवाब अब कौन देगा, सो भागे भागे माधव के घर गए और बीमार माधव को ही जिद करके स्कूल ले आए. तब माधव ने ही निरीक्षक के सवालों के सारे जवाब दिए, तब जाकर उनकी सांस में सांस आई. 

1917 में भी एक छात्र सम्मेलन हुआ, वाद विवाद प्रतियोगिता में, माधव को सर्वश्रेष्ठ वक्ता चुना गया. हैरानी तो तब हुई जब जाने माने विधिवक्ता, मुलना जो उस कार्यक्रम में मौजूद थे इतने प्रभावित हुए कि उनका भाषण फिर से सुनने के लिए उनके स्कूल में पहुंच गए. गोलवलकर जब नागपुर के हिसलॉप महाविद्यालय में पढ़ने गए, उससे पहले वो शेक्सपियर के पूरे साहित्य को पढ़ चुके थे. वहां अंग्रेजी के एक प्रोफेसर गार्डनर को उन्होंने क्लास में ये कहकर हैरानी में डाल दिया कि उन्होंने जो बाइबिल से संदर्भ दिया है, वो गलत है. सोचिए ईसाई प्रोफेसर एक हिंदू छात्र से बाइबिल का ज्ञान लेकर कितना परेशान हुआ होगा. उससे भी ज्यादा हैरान थे साथी छात्र कि या तो ये बंदा पागल है या फिर बहुत ही बुद्धिमान.

लेकिन गार्डनर हार मानने को कतई तैयार नहीं थे, वो क्लास से बाहर गए, पुस्तकालय या प्रधानाचार्य के कमरे से बाइबिल लेकर आए और क्लास में ही सबके सामने वही वाला पेज ढूंढा और उन्होंने पाया कि माधव सही थे. उन्होंने अपनी गलती मानी और माधव को अपने पास बुलाकर उनकी काफी तारीफ की. वो खुश भी थे कि उनके विषयों की समझ उनसे ज्यादा हिंदू बच्चों को है.

ये अलग बात है कि गुरु गोलवलकर के आलोचक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ को लेकर उन्हें निशाने पर लेते रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी भी इस बात का जिक्र नहीं किया कि सरसंघचालक बनने के बाद भी गुरु गोलवलकर अपने सम्बोधनों  में अक्सर ईसा मसीह से जुड़े या बाइबिल के उदाहरण दिया करते थे. जब हिसलॉप क़ॉलेज में पढ़ते थे, तब भी एक दूसरे पुस्तकालय में हिंदू ग्रंथों का अध्ययन करने जाते थे. उन्हें ज्ञान की भूख ही उन्हें रामकृष्ण मिशन स्वामी अखंडानंद की शरण में ले गई थी. 

लेकिन ऐसा नहीं था कि आम छात्रों जैसे शौक उनमें नहीं थे, टेनिस उनका प्रिय खेल था, तैराकी इतनी पसंद थी कि काशी में गंगा तैरकर पार करते थे, बांसुरी बजाना भी सीखा था और व्यायामशालाओं में भी जाते थे. लेकिन किताबें पढ़ना इनमे सबसे ऊपर था, काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने तो उनकी मनोकामना पूरी कर दी. रोज एक किताब ले जाना और अगले रोज तक उसे पढ़कर वापस करना और फिर एक ले जाना, परीक्षाओं के दिनों के अलावा उनका नियमित काम था. एक दिन में 180 पेजों की किताब का अनुवाद करना एक जीनियस के लिए ही संभव हो सकता है. वैसे भी उन्हें ‘एक पाठी’ कहा जाने लगा था यानि जो एक बार पढ़ ले, वो कंठस्थ हो जाए.

पिछली कहानी: चीन से युद्ध और गुरु गोलवलकर की ‘सेवा दीपावली’

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