Bollywood Depression Crisis; Fake Box Office Collection | Movie Budget | डिप्रेशन की गिरफ्त में बॉलीवुड: किसी ने इंडस्ट्री छोड़ी, कइयों ने प्रोफेशन बदला, टॉप हाउसेस का दबदबा, फेक बजट-कलेक्शन से दर्शकों का भरोसा टूटा

Bollywood Depression Crisis; Fake Box Office Collection | Movie Budget | डिप्रेशन की गिरफ्त में बॉलीवुड: किसी ने इंडस्ट्री छोड़ी, कइयों ने प्रोफेशन बदला, टॉप हाउसेस का दबदबा, फेक बजट-कलेक्शन से दर्शकों का भरोसा टूटा


4 मिनट पहलेलेखक: वीरेंद्र मिश्र

  • कॉपी लिंक

कोविड के दौरान महीनों तक थिएटर बंद रहे, शूटिंग रुकी और फिल्मों की कमाई रुक गई। जब हालात सुधरे तो बॉलीवुड पूरी तरह बदल चुका था।

अब फिल्मों का कंट्रोल डायरेक्टर या प्रोड्यूसर के पास नहीं, बल्कि बड़े स्टूडियो सिस्टम के पास है। कुछ बड़े बैनर ही इंडस्ट्री चला रहे हैं। हर फैसला—स्क्रिप्ट से लेकर एक्टिंग तक—अब “ब्रांड वैल्यू” देखकर लिया जाता है।

इस माहौल में नए राइटर और डायरेक्टर को मौका नहीं मिल पा रहा। ‘चक दे इंडिया ‘ के डायरेक्टर शिमित अमीन जैसे प्रतिभाशाली फिल्ममेकर काम के लिए तरस रहे हैं। वहीं, बड़े स्टार्स की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही हैं। दर्शक अब पुराने फॉर्मूले वाले रोमांस या एक्शन से उकता चुके हैं।

इस बीच साउथ सिनेमा ने मजबूत कंटेंट और असली कहानियों के दम पर दर्शकों का भरोसा जीत लिया है। उधर बॉलीवुड में फेक बजट और फेक कलेक्शन का चलन बढ़ गया है। प्रचार में करोड़ों की कमाई बताई जाती है, जबकि हकीकत कुछ और होती है, जिससे दर्शकों का भरोसा टूट रहा है।

अब इंडस्ट्री में हालत यह है कि कुछ स्टार्स और बड़े प्रोडक्शन हाउस के पास ही काम है, बाकी कलाकार और टेक्निशियन महीनों से बेरोजगार हैं। इसी वजह से इंडस्ट्री में डिप्रेशन बढ़ा है और कई लोग दूसरे कामों में चले गए हैं।

फिर भी उम्मीद बाकी है — ओटीटी प्लेटफॉर्म ने बाहर के टैलेंट को पहचान दी है। छोटे शहरों के कलाकार और नए डायरेक्टर्स अब वहां अपनी जगह बना रहे हैं। अगर बॉलीवुड इस बदलाव को समझ ले, तो फिर से कंटेंट-ड्रिवन सिनेमा लौट सकता है।

इस बदलाव और डिप्रेशन की वजह को जानने के लिए हमने भूतनाथ के डायरेक्टर विवेक शर्मा, वीएफएक्स सुपरवायजर पार्थ सारथी अय्यर, एक्टर-मॉडल रोहित अग्रवाल, एक्टर- मॉडल जतिन आहुजा, डबिंग आर्टिस्ट सोनीर वढेरा, प्रोडक्शन डिजाइनर स्मिता गुप्ता और मनोचिकित्सक डॉ. सैयदा रुखशेदा से बात की।

भूतनाथ के डायरेक्टर विवेक शर्मा फिल्म इंडस्ट्री में आए बदलाव और डिप्रेशन के बारे में बात करते हुए कहते हैं- 2021 के बाद से बॉलीवुड में हालात काफी बदल गए हैं। अब इंडस्ट्री दो हिस्सों में बंटी दिखती है। एक ग्रुप में कुछ लोगों के पास लगातार काम है, जबकि दूसरे ग्रुप में कई कलाकारों और डायरेक्टर्स को काम ही नहीं मिल रहा।

कई लोग तनाव और डिप्रेशन से जूझ रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने कॉन्ट्रैक्ट या एग्रीमेंट के हिसाब से पैसे नहीं मिल रहे। इसी वजह से बहुत से लोग फिल्म इंडस्ट्री छोड़कर जा चुके हैं।

आज स्थिति यह है कि टैलेंटेड डायरेक्टर्स को भी काम नहीं मिल रहा। जैसे ‘चक दे इंडिया’ के डायरेक्टर शिमित अमीन के पास आज कोई फिल्म नहीं है। पहले जो फिल्ममेकर सुपरहिट फिल्में बनाते थे, अब वे बड़े स्टार्स के साथ काम नहीं कर पा रहे हैं।

बाजीराव मस्तानी के लिए पहले ऋतिक रोशन को चुना गया था

संजय लीला भंसाली अपनी फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी ‘ 2001 से बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने पहले ऋतिक रोशन को चुना था। कुछ बड़े स्टार और प्रोडक्शन हाउस ने ऋतिक को समझाया कि भंसाली उनकी कई महीनों की तारीखें बर्बाद कर देंगे, जिससे ऋतिक ने फिल्म छोड़ दी। बाद में यह फिल्म रणवीर सिंह के साथ बनी और 2015 में रिलीज हुई। हालांकि ऋतिक ने बाद में भंसाली के साथ ‘गुजारिश’ में काम किया।

इससे यही साबित होता है कि अच्छे डायरेक्टर भी इंडस्ट्री की लॉबी और नेपोटिज्म से जूझते हैं। बड़े प्रोडक्शन हाउस टैलेंट और अच्छी कहानियों से ज्यादा स्टार पावर और फॉलोअर्स पर ध्यान देते हैं। सही कलाकार ढूंढना मुश्किल हो गया है, खासकर हीरोइन के लिए, क्योंकि अब एक ऐसा वर्ग बन गया है जिसे सिनेमा से ज्यादा दिखावे और नेटवर्किंग की परवाह है।

आज भी कई डायरेक्टर्स अच्छे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाना चाहते हैं, लेकिन बड़े प्रोडक्शन हाउस उन्हें मौका नहीं देते। उन्हें सिर्फ बड़े स्टार और बड़ी फैन फॉलोइंग दिखती है। असली टैलेंट और कहानी कहने की कला पर ध्यान नहीं दिया जाता।

लड़कियों की कास्टिंग करना सबसे मुश्किल काम

मैं अभी चार फिल्में शुरू कर रहा हूं। लड़कों की कास्टिंग में सिर्फ 7 दिन लगते हैं, लेकिन किसी लड़की को कास्ट करने में 17 महीने लग जाते हैं। इसका मतलब यह है कि सही कलाकार ढूंढना मुश्किल है, क्योंकि अब इंडस्ट्री में एक ऐसा वर्ग बन गया है जिसे सिनेमा से कोई मतलब नहीं। वे सिर्फ लॉबी, नेपोटिज्म और दिखावे पर टिका हुआ है। सोशल मीडिया पर इनके लाखों फॉलोअर्स हैं, लेकिन जब फिल्म थिएटर में लगती है तो देखने कोई नहीं आता।

फेक बजट और झूठे कलेक्शन दिखाने का चलन बढ़ गया है

आजकल ज्यादातर फिल्में ट्रेड पंडितों की टाइमलाइन पर चलने लगी हैं। कई लोगों को फिल्मों के फेक ट्वीट्स करने के भी पैसे मिलते हैं। हिंदी सिनेमा में झूठे बजट और कलेक्शन बताने का चलन बढ़ गया है।

FICCI फेस्टिवल में प्रोड्यूसर रोनी स्क्रूवाला ने कहा था कि कमाई के झूठे आंकड़े दिखाना गलत है, लेकिन अब लगभग हर फिल्म ऐसा कर रही है ताकि लोग सोचें कि फिल्म हिट है और थिएटर जाएं।

मगर जब दर्शक फिल्म देखते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके साथ धोखा हुआ है क्योंकि फिल्म वैसी नहीं होती जैसी बताई जाती है। भारत की 140 करोड़ आबादी में सिर्फ 2 करोड़ लोग ही थिएटर में फिल्म देखते हैं, जबकि साउथ में टिकट सस्ते होने से लोग ज्यादा फिल्में देखते हैं।

अच्छे लेखकों को अब मौके नहीं मिल रहे हैं

आज हालात ऐसे हैं कि जो लोग खुद अच्छा काम नहीं कर पाए, वही अब फैसले ले रहे हैं। न उन्हें साहित्य की समझ है, न फिल्म परंपरा का सम्मान। पहले जब पंजाबी, बंगाली और मराठी निर्देशक फिल्में बनाते थे, तब सिनेमा में गहराई होती थी। फिर खान युग आया, जहां कहानी की जगह ग्लैमर और पार्टी कल्चर ने ले ली। एक बार सलमान खान ने शरमन जोशी से कहा था — “तू मेरी फिल्म करेगा।” अब जब स्टार ही कास्टिंग करने लगें तो निर्देशक का काम क्या बचेगा? जब तक निर्देशकों और फिल्मकारों को आजादी और सम्मान नहीं मिलेगा, सच्ची फिल्में बनना मुश्किल रहेगा।

प्रोड्यूसर और डायरेक्टर के बीच अहंकार

प्रोड्यूसर और डायरेक्टर के बीच अहंकार का टकराव हमेशा से होता आया है। कई बार ऐसा हुआ है कि राइटर ने बढ़िया स्क्रिप्ट लिखी, लेकिन प्रोडक्शन हाउस की दखलअंदाजी से फिल्म का असर खत्म हो गया। सिनेमा दरअसल डायरेक्टर का माध्यम है, इसलिए उसे अपने विजन के अनुसार फिल्म बनाने की आजादी मिलनी चाहिए। वहीं, कई प्रोड्यूसर यह सोच लेते हैं कि पैसे उन्होंने लगाए हैं, इसलिए फिल्म उनकी शर्तों पर बनेगी। लेकिन सच यह है कि दर्शक को इससे फर्क नहीं पड़ता कि फिल्म कितने पैसे में बनी है। उसे बस स्क्रीन पर अच्छी फिल्म देखनी है।

फिल्म ‘लापता लेडीज’ अच्छी मिसाल है

फिल्म ‘लापता लेडीज ‘ इसकी एक अच्छी मिसाल है। अगर यह फिल्म आमिर खान की पत्नी किरण राव ने नहीं बनाई होती, तो शायद यह कभी थिएटर तक नहीं पहुंच पाती। यह थिएटर में तो ज्यादा नहीं चली, लेकिन ओटीटी प्लेटफॉर्म पर खूब पसंद की गई। इससे यह साफ है कि लोग अच्छी फिल्मों को जरूर सराहते हैं, बस उन्हें ऐसी फिल्में कम मिल रही हैं।

QuoteImage

कॉरपोरेट और बड़े स्टूडियो अब भ्रष्ट हो चुके हैं। अगर स्वतंत्र (इंडिपेंडेंट) फंडिंग नहीं मिली, तो अच्छी फिल्में नहीं बन पाएंगी। इन कॉरपोरेट और स्टूडियो में काम करने वाले लोग लाखों रुपए रिश्वत मांगते हैं।

QuoteImage

वीएफएक्स सुपरवायजर पार्थ सारथी अय्यर ने बताया- बॉलीवुड की VFX इंडस्ट्री में छोटी कंपनियों की हालत बहुत खराब है। बड़ी VFX कंपनियां प्रोड्यूसर्स से मोटी रकम लेती हैं और फिर वही काम छोटी कंपनियों से सस्ते में करवाकर अपना नाम लगा देती हैं।

बड़ी कंपनियों का फायदा उठाना

पार्थ सारथी अय्यर कहते हैं- मान लीजिए बड़ी VFX कंपनियां प्रोड्यूसर्स से 100 रुपए चार्ज करती हैं और वही काम छोटी कंपनी से 20 रुपए में करवा लेती हैं। इससे छोटी कंपनियों को सिर्फ मजदूरी मिलती है, मुनाफा नहीं। जब प्रोड्यूसर्स डायरेक्ट आते हैं तो उनके पास बजट कम होता है, इसलिए सिर्फ घर चलाने भर की कमाई होती है।

छोटी कंपनियों की मजबूरी

मेरे स्टूडियो में पहले 11 लोग काम करते थे, अब सिर्फ 2 बचे हैं। हालात इतने बुरे हैं कि कई लोग गांव जाकर खेती करने पर मजबूर हो गए हैं। दूसरे स्टूडियो में 15 से सिर्फ 2 लोग बचे हैं और 5-6 लोग गांव वापस चले गए।

पेमेंट की समस्या

बॉलीवुड में पैसे समय पर नहीं मिलते। कई बार तो मिलते ही नहीं, और अगर मिलते हैं तो टुकड़ों में। इससे पैसों की वैल्यू खत्म हो जाती है। टीम के सदस्यों की पत्नियों के फोन आने लगते हैं कि सैलरी कब मिलेगी, लेकिन जवाब नहीं होता।

असंतुलन की समस्या

बड़े प्रोजेक्ट्स में पैसे फंस जाते हैं जबकि बड़ी कंपनियां पूरा पेमेंट लिए बिना फाइनल कॉपी नहीं देतीं। यह असंतुलन छोटी कंपनियों के लिए जिंदगी मुश्किल बना देता है, न सिर्फ अपनी बल्कि पूरी टीम की सर्वाइवल की चिंता करनी पड़ती है।

एक्टर-मॉडल रोहित अग्रवाल ने बताया- नवाजुद्दीन सिद्दीकी, करीना कपूर, करिश्मा कपूर, टाइगर श्रॉफ और ऋतिक रोशन जैसे सितारों के साथ कई ऐड फिल्में की हैं, जिनसे उन्हें अच्छे पैसे भी मिले। अब जब उन्हें किसी नई ऐड फिल्म का ऑफर आता है, तो वे सबसे पहले अपना बजट बताते हैं। अगर उस बजट में सामने वाला कम्फर्टेबल होता है, तभी वे ऑडिशन भेजते हैं। वरना उनकी प्रोफाइल प्रोडक्शन हाउस तक नहीं भेजी जाती।

साल भर बीत जाता है फिर भी पेमेंट नहीं मिलता

आजकल अगर कोई ईमानदारी और मेहनत से अच्छा काम करता है, तो कई बार उसे आगे बढ़ने नहीं दिया जाता। मैंने पहला ऐड 2020 में Zomato के लिए किया था। उस समय उसी दिन 20 हजार रुपए का पेमेंट मिला था। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। कई बार सालभर बीत जाता है, फिर भी पेमेंट समय पर नहीं मिलता।

एक्टर-मॉडल जतिन आहुजा ने बताया- 2019 में मैंने डाबर ओडोमोस का एड किया था, जिसके 15 हजार रुपए मिले थे। तब मैं नया था, इसलिए वो रकम मेरे लिए बड़ी थी। आज बड़े-बड़े ब्रांड्स के एड करता हूं, पर बजट वही रहता है। असली दिक्कत ये है कि एक्टर्स का अनुभव बढ़ने के बाद भी उनकी फीस नहीं बढ़ती।

ब्रांड से पैसा पहले प्रोडक्शन को मिलता है, फिर कास्टिंग वालों को, और आखिर में कभी-कभी एक्टर तक पहुंचता ही नहीं। मैंने देखा है कि इस लंबी चेन में सबसे ज्यादा सफर एक्टर ही करता है। सीरियल्स में तो कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक 90 दिन बाद पेमेंट मिलता है, हालांकि कुछ प्रोडक्शन हाउस समय पर पेमेंट करते हैं।

पेमेंट नहीं मिला तो बैग उठा लाया

एक बार मैंने एक ब्रांड के लिए शूट किया, पर एक साल तक पैसे नहीं मिले। फोन करने पर कोई जवाब नहीं देता था। जब ऑफिस गया तो वो लोग भूल चुके थे कि मैंने उनके लिए काम किया था। आखिर में मैंने वहां पड़ा एक बैग उठा लिया जिसकी कीमत मेरे पेमेंट के बराबर थी और कोई कुछ बोला भी नहीं।

सोनीर वढेरा कहते हैं- यह हम पर निर्भर करता है कि डिप्रेशन में जाएं या खुद पर काम करें। लॉकडाउन में काम नहीं था, कई लोग उदास हो गए, लेकिन मैंने उस समय को सीखने का मौका बनाया। मैंने डबिंग की प्रैक्टिस शुरू की और अब नेटफ्लिक्स, प्राइम वीडियो और हॉटस्टार के बड़े शोज में लीड किरदारों की डबिंग कर रहा हूं। अगर मैं काम न होने की चिंता करता, तो शायद डिप्रेशन में चला जाता। एक्टिंग मेरा प्यार है, लेकिन डबिंग से अच्छा पैसा और पहचान दोनों मिल रहे हैं।

स्मिता गुप्ता ने बताया- बैंगलुरु में मैं कुछ बंगलों और विला को शूटिंग फ्रेंडली बना रही हूं। मैंने 27 साल बॉलीवुड में प्रोडक्शन डिजाइन का काम किया है। टीवी में परमानेंट सेट और सेट डिजाइन का चलन एकता कपूर के शो ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ से शुरू हुआ था, जिसका सेट मैंने डिजाइन किया था। टेलीविजन में सेट डिजाइनिंग की शुरुआत मैंने ही की और अब तक 30 से ज्यादा बड़े शो और कई फिल्म निर्माताओं जैसे प्रकाश झा, सुभाष घई, राजीव राय की फिल्मों पर काम किया है।

अब सिर्फ गुजारा करने के लिए काम

अब इंडस्ट्री पहले जैसी नहीं रही। लोग बस अपना गुजारा करने के लिए काम कर रहे हैं। फिल्में बनती कम और प्रपोजल ज्यादा होते हैं। कहानी सुनाने से पहले ही कहा जाता है कि बजट नहीं है। पहले हर सदस्य फिल्म में दिल से शामिल होता था।

कॉरपोरेट सिस्टम आने के बाद स्टार्स को ज्यादा महत्व मिलने लगा है, जबकि कहानी और डायरेक्टर की रचनात्मक आजादी घट गई है। अब प्रोड्यूसर की मनमानी चलती है, जिससे फिल्मों का असली क्रिएटिव माहौल खत्म हो गया है।

डॉ. सैयदा रुखशेदा कहती हैं- कोविड के बाद बॉलीवुड में माहौल काफी बदल गया है। कुछ लोगों के पास बहुत काम है, जबकि कई लोगों के पास बिल्कुल काम नहीं है। इस वजह से डिप्रेशन और चिंता की बीमारियां बढ़ी हैं। शुरू में अनिश्चितता के कारण ज्यादा एंजाइटी देखी गई, बाद में निराशा से कई लोगों को गंभीर डिप्रेशन हुआ।

कुछ लोग इंडस्ट्री छोड़कर गांव चले गए हैं, तो कुछ प्रोफेशन बदल रहे हैं। हमारे पास डिप्रेशन के शिकार लोग इलाज के लिए आते हैं। हम उन्हें गाइड करते हैं और जरूरत होने पर ट्रीटमेंट देते हैं। अगर मरीज की उम्र 18 साल से ज्यादा है, तो हम उन्हें कहते हैं कि इलाज में उनकी फैमिली या करीबी दोस्तों का साथ जरूरी है।

गंभीर डिप्रेशन में लोग शराब, ड्रग्स या सुसाइड के विचारों में घिर सकते हैं। ऐसे मामलों में हम जरूर चाहते हैं कि सपोर्ट सिस्टम का कोई सदस्य उनके साथ रहे, ताकि मिलकर उन्हें बेहतर किया जा सके।



Source link

Leave a Reply